मंगलवार, 26 जुलाई 2011

आओ धर्मशाला में उम्र गुजारें !

जैसा नाम ही है, धर्मशाला। देखिए, इस लिहाज से मानव धर्म का कुछ तो काम होगा ही। अब यहां राजनीतिक गोटी बिछने वाली धर्मशाला की बात कर लें, क्योंकि इन दिनों देश में धर्मशाला की नई वेरायटी पर बहस शुरू हो गई है औरराजनीतिक धर्मशालाकी खासियत मुझे पता नहीं है, क्योंकि कभी मेरा पाला नहीं पड़ा है। वैसे भी इस धर्मशाला में हर समय जिस तरह से हुज्जतबाजी मची रहती है, उसके बाद मेरा मन नहीं कहता कि चले जाओ और अपने को कोसने के काबिल बनाओ।
पिछले दिनों जिन्न की बोतल से ‘राजनीतिक धर्मशाला’ सामने आई। एक धर्मशाला के पुराने सिपहसालार ने ‘धर्मशाला’ को एक तरकश बताया और कहा कि इस धर्मशाला में जो जब चाहे जा सकता है और जब मन गुलाटी मारते फुदकने लगे, फिर वापस आया जा सकता है। एक बात तो है, धर्मशाला में जमावड़ा होता है, ये अलग बात है कि उसकी केटेगरी बदल जाती है। गांवों की धर्मशालाओं में दो जून की रोटी के लिए मशक्कत करने वाले महागरीब दर्शन देते हैं और वहां अपनी शोभा बढ़ाते हैं, वहीं राजनीतिक धर्मशाला में ऐसे खास चेहरों को जगह मिलती है। जिनकी अपनी शाख होती है, पैसा होता है, पॉवर होता है। गरीब को कोई न तो जिंदा रहते कभी पूछता है और न ही मरने के बाद। गरीबी में मर-मरकर किसान अन्न उपजाता है और देश के करोड़ों पेट भरने में योगदान देता है, मगर वह खास किस्म की धर्मशाला में एंट्री करने मरते दम तक काबिल नहीं हो पाता। दूसरी ओर जिसके पास दमखम है, जो तंत्र का पाचनतंत्र बिगाड़ सकता है, हुकूमत से दो-दो हाथ कर सकता है, कुछ ऐसे किस्मों के लिए ‘राजनीतिक धर्मशाला’ पनाहगाह बनती है।
मैं ये तो कहूंगा कि हमारे जिस राजनीतिक बुजुर्ग ने अपनी जुबान से ‘अथ धर्मशाला कथा’ सुनाई है, निश्चित ही उन्होंने बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है। कहने का मतलब यह है कि उन्होंने इससे पहले कई बार अपनी जुबान से अपनी ‘धर्मशाला’ की अलग-अलग कथा का आलिंगन किया है, मगर धर्मशाला कथा और उसकी तरकश की कहानी कभी नहीं सुनाई। उन्होंने देश की जनता को धन्य कर दिया है, क्योंकि वे जिस धर्मशाला में रहते आए हैं, उसके मुकाबले ये धर्मशाला में रहने व जाने वाले, ज्यादा पॉवरफुल होते हैं। कुछ तो किसी को धूल चटाने को आतुर नजर आते हैं और कुछ किसी की परछाई बर्दास्त नहीं करते, ये अलग बात है, वे रहते एक ही धर्मशाला में रहकर राजनीतिक तीन-पांच करते हैं। मजेदार बात यही है, बात बिगड़ जाती है तो वे चले जाते हैं और फिर धीरे से लगता है कि एक तीर से कोई निशाना नहीं लगने वाला है तो वे चले आते हैं, फिर उसी तरकश में, जहां उसने कुछ बरस बिताए या फिर पूरा जीवन दे दिया। उसे धर्मशाला भी पूरी तन्मयता से अपनाता है, भले ही उसने पहले उसकी कैसी भी तस्वीर बनाई हो, या कहें कि तस्वीर उधेड़ी हो।
राजनीतिक धर्मशाला में रहने के लिए, जैसा नाम है और जितना बड़ा पद है, उसके हिसाब से अर्थतंत्र को मजबूत करना पड़ता है। वे यह भी जानते हैं कि इस धर्मशाला में रहो या फिर न रहो, जो दिया वह वापस आने वाला नहीं है। खैर, ये तो सभी जानते हैं, एक बार देने के बाद कोई वापस करने के मूड में नहीं होता। धर्मशाला में कुछ तो धर्म-कर्म करने पड़ते हैं। अब तो समझ में आ गया होगा, अफसाना धर्मशाला का, जहां किसी भी उम्र में आया जा सकता है। इसकी पूरी छूट है, जब तक मन न भरे, तब तक धर्मशाला की खिदमतगारी ली जा सकती है। कईयों की जिंदगी धर्मशाला के नाम लिखी नजर आती है। हालांकि, जिस दिन मन भौखलाया, उस दिन फिर काहे की धर्मशाला, किसकी धर्मशाला... हैं न।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

कृपापात्र आशीर्वाद का प्रतिफल

बड़ों के आशीर्वाद की अहमियत जमाने से है और जमाने तक रहेगा, क्योंकि बड़ों की कृपा बिना संभव ही नहीं कि आप फर्श से अर्श तक पहुंच पाएं। अधिकतर यह सुनने को मिलते रहता है कि फलां के आशीर्वाद से ही गगनचुंबी सफलता मिली और एक नई इबारत लिखने का अवसर मिला। मैं भी समझता हूं कि आशीर्वाद की भूमिका हर जगह है। इतना मान लीजिए कि आशीर्वाद है, तो आप हैं। इसके इतर बात करें तो एक आशीर्वाद की दस्तूर भी बरसों से चली आ रही है, वह है कृपापात्र आशीर्वाद। इसके बगैर तो आप एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकते, सफलता की बात सोचने के पहले कृपापात्र के गुण में पारंगत होना जरूरी है। साथ ही जुगाड़ू प्रवृत्ति भी खुद में विकसित करनी पड़ती है। उसके बाद कृपापात्र आशीर्वाद का प्रतिफल भी सुनहरा हो जाता है। फिर हर जगह जलवा ही जलवा।
मेरा हाल ही में कृपापात्र आशीर्वाद के गुण से लबरेज ऐसे ही व्यक्ति से पाला पड़ा। उसने बताया कि कैसे किसी की छत्रछाया में आगे बढ़ा जा सकता है और अपनी जुगाड़ की रोटी सेंकी जा सकती है। उसने कृपापात्र से मिले आशीर्वाद से मिली उपलब्धि गिनानी शुरू कर दी और गुणगान में ऐसे रम गया, जैसे हम देवी-देवताओं की आरती में लीन हो जाते हैं। वह तो पूरी तरह भाव-विभोर था और बताया कि जिस एयर कंडीशनर मकान में रह रहा है, वह उसका अपना नहीं है। बस कृपापात्र आशीर्वाद की महिमा है। साथ ही उसने बताया कि खर्चा-पानी की चिंता ही नहीं रहती, बस थोड़ी-बहुत उस व्यक्ति की सेवा व आवभगत में जुटना पड़ता है, जिसका कृपापात्र आशीर्वाद है। बाकी दिन ऐश को कैस करते रहो।
वह व्यक्ति थोड़े समय में इतना घुल-मिल गया कि पूरी तहर बेबाक हो गया। वह कृपापात्र आशीर्वाद का अफसाना गिनाते थक नहीं रहा था और उसने बताया कि आज जिसकी कृपापात्र आशीर्वाद उसे मिल रहा है, वैसे दौर से वह ‘दरियादिली’ भी गुजर चुका है। इसके बाद तो ऐसा लगा, जैसे वह अपना दिल खोलकर बैठ गया है और उसने एक कदम आगे बढ़ते हुए अपने भविष्य की ढेरों तमन्नाएं भी गिना दीं और कहा कि उस पर भी कृपापात्र आशीर्वाद का शुरूर सवार हो गया है। लिहाजा, वह चाहता है कि जैसे भी करके कोई उंचे ओहदे पर पहुंच जाए, उसके बाद वह भी ‘कृपापात्र आशीर्वाद’ को खूब लुटाएगा। उसका कहना था कि अभी तो गणित की तरह पूरा गुणसूत्र सीख रहा हूं, जिससे बाद में फेल होने की कहीं गुंजाइश ही न रहे। उसने बताया कि जिसने भी कृपापात्र आशीर्वाद का लाभ लेने हड़बड़ी की, वह उससे उबर नहीं पाया है। ऐसे में वह समझ गया है कि फूंक-फूंककर कदम रखने में ही भलाई है। जब तक किसी को बरगलाना न आए, तब तक भला कैसे कृपापात्र आशीर्वाद के काबिल हुआ जा सकता है। जिस तरह लंबा वक्त बिताए बिना किसी क्षेत्र में महारत हासिल नहीं किया जा सकता, उसी तरह कृपापात्र आशीर्वाद लेने के लिए अनुभव के साथ विश्वासपात्र भी बनना पड़ता है, क्योंकि यह आशीर्वाद उसी को नसीब होता है, जो अपना काम-धाम छोड़कर पिछलग्गू बना रहता है।
अब तो मैं भी कृपापात्र आशीर्वाद पाने के फिराक में हूं, मगर मुझे अपने से ही फुरसत नहीं है। किसी के आगा-पीछा की हिसाब-किताब रखने का वक्त ही कहां ? ऐसे में समझ में आ रहा है कि कृपापात्र आशीर्वाद का प्रतिफल हम जैसे लोगों के लिए नहीं है। इसके बाद किसी तरह अपने मन को मनाया, मगर वह रह-रहकर कृपापात्र आशीर्वाद का तान छेड़ ही देता है, मगर मुझे पता है कि इस संगीत के आनंद से मेरा मेल नहीं है। अब ऐसे में क्या किया जा सकता है ?

सोमवार, 18 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार है कि मुरब्बा

देखो भाई, यदि आपने भ्रष्टाचार नहीं किया हो तो लगे हाथ यह सौभाग्य पा लो और बहती गंगा में हाथ धो लो। फिर कहीं समय निकल गया तो फिर लौटकर नहीं आने वाला है। भ्रष्टाचार की अभी खुली छूट है, जब जैसा चाहो, कर सकते हो। बाद में न जाने मौका मिलेगा कि नहीं, कहीं पछताने की नौबत न आए। फाइलों की सुरंग से बारी-बारी एक-एक भ्रष्टाचार का दानव बाहर निकलकर आ रहा है, ये इतने शक्तिशाली हैं कि इन पर हाथ डालने कतराना पड़ता है और जब दबाव में उसकी कमीज से मक्खी उड़ा भी लिए और वह जेल की चारदीवारी में पहुंच गया तो वहां भी मौज ही मौज ? कहीं से नहीं लगता कि वह भ्रष्टाचारी जेल की रोटी तोड़ रहा है। उसे तो जेल ऐसी लगती है, ‘घर से दूर-घर जैसा’।
भ्रष्टाचार का भूत पूरे उमंग में नजर आ रहा है और घूम-घूमकर अठखेलियां कर रहा है। जब उसे रोकने वाला कोई नहीं है और न ही उसकी पहचान करने वाला, तो काला धन छुपाकर भी सफेदपोश बना रहा जा सकता है। जब सब जगह काला ही काला है, फिर काला धन रास तो आएगा ही। भ्रष्टाचार की छाया कभी गरीबों पर नहीं पड़ती, उसे तो बस बड़े व ओहदेदार लोगों पर मेहरबानी करने आता है और भगवान की लीला ही ऐसी है कि भ्रष्टाचारी मलाई मारता है और गरीब, भुखमरी का फांके छानता है। गरीब, जीवन भर यही प्रार्थना करते रहता है, बस उसे एक बार अमीर बना दे, मगर वह एक बार भी यह नहीं कहता कि भ्रष्टाचार की कला सीखा दो ? आज देश में जैसे भुखमरी व बेरोजगारी कायम है, उसके बाद तो मुझे लगता है कि यह गुण भी गरीबों को भ्रष्टाचारियों से सीख लेनी चाहिए। भ्रष्टाचारियों की तिजोरियों में कचरे की तरह पड़े नोटों को देखकर लार टपकाने से कुछ नहीं होने वाला, ऐसी उपलब्धि हासिल करने के लिए कई धतरकम करने पड़ते हैं। कईयों के विकास के लिए बनी योजनाओं को चट करनी पड़ती है और गरीबों के हिस्सों को सब कुछ पचा लेने वाले छोटे से पेट के हवाले करने हर पल उतारू रहना पड़ता है। भ्रष्टाचार के महारथी बनने के लिए ये खूबी तो होनी ही चाहिए, इसके बगैर खाली तिजोरी नहीं भरी जा सकती। इसके लिए उंचे ओहदे में कैसे पहुंचा जाए, इसकी जुगाड़ लगाओ, क्योंकि जब तक कुर्सी की माया मेहरबान नहीं होगी, तब तक भ्रष्टाचार की कामयाबी नहीं मिलेगी।
यहां सोचने वाली बात यह है कि आज भ्रष्टाचार पूरी तरह मुरब्बा बन गया है और उसकी मिठास लेने जहां देखो, वहां कोई न कोई लालायित नजर आ रहा है। जान भी रहे हैं कि पकड़े भी गए तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं है, यहां भी हाथ की सफाई काम आती है। वैसे भी दोनों हाथों से लुटाने पर कौन नहीं लुटेगा ? ये अलग बात है, कुछ बदनामी भी हो सकती है, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है। वे यही कहते नहीं थकेंगे- जिनका नाम है, वही तो बदनाम है।
पिछले दिनों की बात है कि भ्रष्टाचार से मेरी भी मुलाकात हो गई, उसने मुझे भी अपने दावत में बुलाया। मैं वहां जाना चाहता था, मगर मुझे अपनी हैसियत भी पता है कि मैं उस जमात में कैसे शामिल हो सकता हूं, जहां बस करोड़ों-अरबों की बात होती है ? अपनी तो हालत ऐसी है कि अपने पास कितने रूपये हैं, वह हमेशा याद रहता है, क्योंकि कड़की जो हर समय बनी रहती है। भ्रष्टाचार की करामात का मजा लेने वालों जैसा थोड़ी न है, जो वे तिजोरी में नोटों को रखकर भूल जाते हैं ? यही तो भ्रष्टाचार के मुरब्बे की मिठास है, जब पता ही नहीं चलता है कि कितना कहां से आया ? और यह भी पता नहीं रहता, जो है, वह भी कब बाहर निकलेगा ? सब भ्रष्टाचार देवता की मेहरबानी है। अब ऐसे में कैसे किसी का भ्रष्टाचार के मुरब्बे की ओर रूझान नहीं बढ़ेगा। आपको में भी भ्रष्टाचार के मुरब्बे की मिठास का आनंद लेना है तो देर मत कीजिए !

सोमवार, 11 जुलाई 2011

ले लीजिए स्वर्णकाल का आनंद

यह बात सही है कि हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी स्वर्णकाल आता ही है। उपर वाला निश्चित ही एक बार जरूर छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ लोग उस छप्पर में समा जाते हैं तो कुछ लोग पूरे छप्पर को समा लेते हैं। कर्म तो प्रधान होना चाहिए, मगर भाग्य से भरोसा भी नहीं उठना चाहिए, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं, जब स्वर्णकाल का दौर चलता है तो फिर फर्श से अर्श की दूरी मिनटों में तय होती है, मगर जब संक्रमणकाल चलता है तो फिर अर्श से फर्श तक आने में पल भर नहीं लगता।
अब देखिए, पीएम साहब को। हो सकता है, पीएम बनने की ख्वाहिश उनके मन में रही होगी, मगर बैठे-बिठाए ऐसा स्वर्णकाल आएगा, ऐसा वे सपने में भी नहीं सोचे रहे होंगे। तभी तो जी भर कर वे स्वर्णकाल का आनंद ले रहे हैं। भ्रष्टाचार के गटर से बाहर आ रही गंदगी के वे मुखिया हैं और फिर भी उन्हें ईमानदार कहे जा रहे हैं ? भला, इससे बड़ा ‘स्वर्णकाल’ क्या हो सकता है ? खुद की जमात के लोग कह रहे हैं कि पीएम, अब काबिल नहीं रहे, युवराज की ताजपोशी कर दो। कुछ जमाती लोग दबी जुबान से पीएम की कुर्सी तोड़ने में लगे हैं, मगर पीएम साहब कह रहे हैं, अभी उन्हें उपरी हुकूमत ने इशारा नहीं किया है, जब कर देंगे, तब कुर्सी की मोह से किनारे हो लेंगे। विरोधी व एक तबका, उन्हें यह कह रहे हों कि वे कमजोर हैं, मगर वे पूरे जोश-खरोश के साथ अटल हैं और रटारटाया जवाब दे रहे हैं, वे इस ढलती उम्र में भी देश में भ्रष्टाचार, घोटाले, भुखमरी से निपटने अकेले ही पर्याप्त हैं, किसी का साथ नहीं चाहिए, बस एक ही नाम है, जिनका सहारा चाहिए ? साथ ही चुटेले अंदाज में वे कह सकते हैं, बुढ्डा होगा तेरा बाप, क्योंकि आज यही खुमारी उम्रदराज लोगों में छाई हुई है। ऐसे में इस जुमले से हमारे पीएम साहब कैसे दूर हो सकते हैं, क्योंकि दम रखते हैं, तभी तो किसी से कम नहीं लगते हैं।
ये अलग बात है कि देश, भ्रष्टाचार की गर्त में चला जा रहा है, मगर उनका रूख स्पष्ट नहीं है। देश दिन-ब-दिन खोखला होता जा रहा है, सफेदपोश, देश की संपत्ति को काले बनाने में लगे हैं। खुद के साथ कंधे से कंधे मिलाकर बरसों तक राग आलापने वाले कुछ लोग, जेल की चारदीवारी में हैं। फिर भी हमारे पीएम हैं, जैसे लगता है, उनका चल निकला है। एक बार नहीं, देश की उदार जनता ने उन्हें दो बार मौके दिए हैं और स्वर्णकाल का पूरा आनंद लेने का अवसर मिला है, लेकिन वही जनता, बेकारी, भ्रष्टाचार, घोटाले के संक्रमण से सूख रही है। अब क्या कहें पीएम जी, आपको और आपके राजनीतिक जमातियों को ? जनता कर भी क्या सकती है, उसे जो अधिकार मिला है, उसका वे बंटाधार कर चुकी है। ये तो वही हुआ, जैसे ‘चिड़िया चुग गई खेत, अब काहे पछताय’। जनता के लिए सिवाय ढांढस के कुछ नहीं है और उपरी हुकूमत में स्वर्णकाल का रंग चढ़ा है।

रविवार, 3 जुलाई 2011

श्रेय लेने का शुरूर

अक्सर देखा जाता है कि जब कोई उल्लेखनीय कार्य होता है तो उसका श्रेय लेने की होड़ मच जाती है और स्थिति मारामारी की बन जाती है। श्रेयमिजाजी लोग खास मिसाल पेश कर लेते हैं, तब वह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने भी उतारू हो जाता है। भले ही वह किसी भी रूप में हों ? आज जहां देखें वहां, केवल श्रेय लेने की होड़ दिखती है। ऐसा लगता है, जैसे गली-गली मेंश्रेय की दुकानखुल गई है और वहां से जो जब चाहे, तबश्रेयखरीदकर ले लाए। जैसे, बाजार से हम सेब खरीद कर ले आते हैं। फिर अपना एकाधिकार जमाने में उसे कहां देर लग सकती है ?
श्रेय लेने की महारथी होना भी बड़ी बात है, क्योंकि इसे उस समय ली जाती है, जब खुद के लिए उपलब्धि या महानता की बात हो। बाकी समय, यही श्रेय कौड़ी काम की नहीं होती ? हद तो तब हो जाती है, जब ‘श्रेय’ को हथियाने की कोशिश की जाती है। कोई श्रेय दें या न दें, मगर मन किया तो खुद ही ‘श्रेय’ की मशाल लेकर निकल पड़े, गलियों में और फिर थपथपाने लगे अपनी पीठ। ऐसा नजारा मुझे लगता है, आपने भी कहीं न कहीं जरूर देखा होगा, क्योंकि श्रेय लेने का कीड़ा भी उपलब्घि के नाम पर रेवड़ी बटोरने वाले को ही काटा रहता है तथा उसके मुंह से बस ‘श्रेय’ पाने के शब्द निकलते हैं।
आज हालात यहां तक आ गए हैं कि लोगों में मामूली बात पर भी श्रेय लेने होड़ नजर आ रही है। जब दो पियक्कड़ यह कहते फिरे कि किसने, ज्यादा पी रखी है और इस बात पर झगड़ा हो तो, ‘श्रेय’ के शुरूरी अंदाज को समझा जा सकता है।
हमारे देश के नेता भी श्रेय लेने में माहिर नजर आते हैं। जब देखते हैं कि लोहा गरम है, उसी समय दे मारते हैं, श्रेय का हथौड़ा और जीत लेते हैं, श्रेय की बाजी। जनता तो बेचारी है ही, उसे बस इतनी बात समझ में आती है कि नेता जो मंच से कह दे, वही सही है। परदे के पीछे जो होता है, उसे वह कैसे समझ सकती है ? यहां करता कोई है और भरता कोई है ? बातों-बातों में नेता झगड़ते रहते हैं और श्रेय लेने की बाजीगरी साबित करते रहते हैं, मगर इस राजनीति के बंद सर्कस में ‘श्रेय’ की बयार बहती है, उसमें कोई नहीं बहता, सिवाय अवाम के।
वैसे मौका आने पर यही बाजीगर कब पलटी मार ले, कह नहीं सकते। अब देखिए, महंगाई को ही। महंगाई बेचारी डायन बन बैठी है और जनता बेबस होकर रह गई है ? सरकार केवल यही दंभ भर रही है, बस अब कुछ माह ही...। ऐसे मसलों में श्रेय का शुरूर नेताओं के दिमाग गायब हो जाता है। मेरे मुताबिक यही राजनीति है, जिसे कोई समझ न पाए और हमेशा घनचक्कर बन बैठे रहंे और नेता, वोट की नाव में अपनी नोट की गंगा बहाते रहे। हालांकि, नोटों की गंगा बहाना भी शुरूर है, मगर यहां कोई किसी को श्रेय नहीं देता कि उसकी तिजोरी को किसने, कितनी भरी है ?