सोमवार, 28 नवंबर 2011

जूते और थप्पड़ का कमाल

जूता, जितना भी महंगा हो, हम सब की नजर में मामूली ही होता है और उसकी कीमत कुछ नहीं होती। जूता चाहे विदेश से भी खरीदकर लाया गया हो, फिर भी उसे सिर पर तो पहना जाता है और ही रखा जाता है। जूते तो बस, पैर के लिए ही बने हैं। जैसे, ओहदेदार लोगों के लिए कुछ लोग जूते के समान होते हैं, वैसे भी जूते का वजन, कहां कोई तौलता है। अभी देश में खास किस्म के जूते कभी-कभी नजर जाते हैं, जिनकी अहमियत के साथ पूछपरख भी होती है। यह जूते भी उतना ही मामूली होते हैं, जितना बाजार में मिलने वाले जूते। ऐसे कुछ जूतों की खासियत होती हैं कि उसकी पहचान, कुछ विशेष लोगों से जुड़ जाती हैं। जूते की प्रसिद्धि इसकदर बढ़ जाती है, जिसके सामने नामी-गिरामी कंपनी के जूते भी बौने साबित होते हैं।
पहली बार जब विदेशी धरती पर जूता उछला, उसके बाद जूते, जूते नहीं रहे, बल्कि रातों-रात ही यह ऐसे महान वस्तु बन गया, जिसका अब तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। मीडिया ने तो जूते की महिमा ही बढ़ा दी। जूता उछलने के बाद इस तरह महिमामंडन किया गया, उसके बाद जूता, जूता नहीं रहा। अब तो जूते का धमाका हर कहीं होने लगा है। जूते की खुमारी ऐसी छाई कि हमारे देश मंे एक नहीं, बल्कि कई जूते उछाले गए व फेंके गए। देखिए, जूते जमाने से मामूली माने जाते रहे हैं, उछालने वाला भी मामूली व्यक्ति होता है, लेकिन जिन पर उछाला जाता है, वह नामचीन होते हैं। जूते के साथ ही मीडिया की मेहरबानी से वे व्यक्ति भी दिन-दूनी, रात-चौगनी की तर्ज पर इतना नाम कमा लेते हैं, जिसके बाद उन जैसों का नाम जुबानी याद हो जाता है। इस तरह वह ‘जूता वाला बाबा’ साबित होते हैं।
जूते की कहानी तो सुन ही रहे थे, जब थप्पड़ की धुन चल रही है। किसी को एक थप्पड़ पड़ी नहीं कि दूसरा कहता है, बस एक ही...। थप्पड़ का दर्द वही जान सकता है, जिसने महसूस किया हो। जिस तरह महंगाई का दर्द आम जनता सहती है, मगर उसका अहसास कहां किसी को होता है ? गरीब, गरीबी में मरता है और उसकी आने वाली पीढ़ी भी बरसों सिसकती रहती है। कई तरह की मार गरीब भी खाते हैं, भ्रष्टाचार व महंगाई की मार ने तो लोगों का जीना ही हराम कर दिया है। इतना जरूर है कि आम जनता, थप्पड़ का दर्द को नहीं जानती, क्योंकि वह पहले से ही गरीबी, महंगाई से कराहती रहती है, उसके बाद दर्द बढ़ने का पता कहां चल सकता है ?, दर्द सहने की आदत जो बन गई है।
जिन्ने कभी दर्द ही नहीं सहा हो, वह जान सकता है कि वास्तव में किसी तरह की मार की पीड़ा क्या होती है ?
देश में पहले जूते का शुरूर सवार था, अब थप्पड़ ने अपनी खूब पैठ जमा ली है। जनता भी थप्पड़ की धमक को हाथों-हाथ ले रही है। जूते व थप्पड़ का कमाल ऐसा चल पड़ा है कि महंगाई व भ्रष्टाचार की मार का दर्द भी सुन्न पड़ गया है। अब क्या करें, माहौल ही ऐसा बन गया है, जहां केवल जूते व थप्पड़ के ही चर्चे हैं।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

सरकारी नौकरी की सोच

अभी हाल ही में मेरा एक मित्र मिल गया। उनसे काफी अरसे से भेंट नहीं हो पाई थी। जब उनका हालचाल पूछा तो बेरोजगारी का दर्द उनके चेहरे पर गया और उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी की चाहत, ऐसे बताया कि मेरा भी दिल पसीज गया, क्योंकि मैं भी बेरोजगारी की मार झेल रहा हूं। ये अलग बात है कि लिख्खास बनकर बेरोजगारी का दर्द जरूर मेरा कम हो गया है, लेकिन मेरे मित्र के हालात कुछ और ही थे।
खुद के बारे में बताने के बाद और बताया कि उन्होंने रोजी-रोटी के लिए एक छोटा व्यवसाय शुरू किया है, किन्तु वह भी उधारी की मार से दो-चार हो रहा है और गरीबी से वह खुद। जब परिवार की बारी आई तो बताया कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई हो रही है। मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा कि बच्चे गांव में ही पढ़ते हैं, तो उनका जवाब था, नहीं। बच्चे तो 20 किमी दूर इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने प्रतिप्रश्न करते हुए पूछा कि क्यों भाई, गांव में सरकारी स्कूल नहीं है ? उसने बताया, स्कूल तो है, मगर...। उनके मगर का अर्थ मुझे समझ में आ गया।
मैंने गांवों में स्वास्थ्य के हालात देखे हैं, तो सोचा कि पूछ तो लूं, वहां स्वास्थ्य व्यवस्था का क्या हाल है ? मेरे मित्र ने बड़े ही गर्व से बताया कि गांव में कहां की स्वास्थ्य व्यवस्था, निजी क्लीनिकों जैसी सुविधा, सरकारी अस्पतालों में कहां होती है, हम थोड़े ही एैरे-गैरे अस्पतालों में इलाज कराने जाएंगे।
अब तो मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। सोचा, जब नौकरी नहीं है तो आमदनी क्या होगी, यह बात मैंने पूछ ही डाली। मेरे मित्र ने बताया कि चाहिए तो सरकारी नौकरी, उसकी अपने मजे हैं। सोचा, अभी कुछ नहीं है तो छोटा व्यवसाय करके ही आमदनी जुटाई जाए। बचत के बारे में पूछा तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया, हां, प्राइवेट बैंक में खाते हैं ना। उसमें ठीक-ठाक बैंक-बैलेंस है, उससे भी व्याज के तौर पर मुनाफा हो जाता है। यहां भी मुझसे रहा नहीं गया कि आपके शहर में सरकारी बैंक नहीं है, तो वे बोले, हैं ना, मगर...। यहां भी मैं, उनके मगर का अर्थ समझ गया।
बाद में जब मैंने उनसे यह कहा कि जब आप हर कहीं निजी स्कूल, अस्पताल तथा बैंक और न जाने क्या-क्या... में सुविधा लेते हैं और सरकारी सुविधाओं को कोसते हैं ? बावजूद, आप सरकारी नौकरी के पीछे क्यों पड़े हैं ? मेरे इस सवाल के बाद उसने मुझे जो जवाब दिया, उससे तो मेरे कान ही खड़े रह गए। मित्र बोले, सरकारी नौकरी में फायदे ही फायदे हैं। जितना मन किया काम करो, कभी दफ्तर भी नहीं गए तो कोई पूछने वाला नहीं। 5 तारीख हुए नहीं कि वेतन बैंक खाते में आ जाते हैं।
उन्होंने ऐसे अनगिनत लाभ गिनाए, जिसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और अब मुझे भी लगा कि सरकारी नौकरी के फायदे आजमाने के लिए कुछ भी कर गुजरूंगा। मैं भी सोचने लगा कि इतना पढ़ने के बाद, केवल कलम घींसने से कुछ फायदे होने वाले नहीं है। यहां कोल्हू के बैल की तरह रगड़ाओ और फायदा, उसके विपरित चवन्नी भी नहीं। इससे तो अच्छा है, सरकारी नौकरी, जहां आम के आम और गुठलियों के दाम मिलते हैं, मतलब, जब काम किए तब भी वेतन, नहीं किए तब भी वेतन। कौन कितना काम रहा है, कोई देखने वाला नहीं रहता। जो मन में आए, वो करो। कभी कोई एकाध नोटिस मिल जाए, उसे डाल दो, रद्दी की टोकरी में और हो जाओ, दफ्तर से नौ-दो ग्यारह। भला, कौन है, जो सरकारी नौकरी और सरकारी नौकर का कुछ भी बिगाड़ सकता है। मेरे मित्र ने भी दोहराया कि चाहे जो भी हो जाए, लेकिन चाहिए तो बस, सरकारी नौकरी ?

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

महंगाई की चिता

हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकीचिताबनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता बता दिया है और लोगों को जीते-जी मरने के लिए मजबूर हैं।
‘महंगाई की चिता’ में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब गरीबों को लेटना नहीं पड़ता। गरीबी की मार झेल रहे गरीब, बरसों से ऐसे ही मुश्किल में थे, उपर से महंगाई की मार से जीवन-मरण का ले-आउट तैयार हो गया है। गरीब पहले गरीबी से त्रस्त हुआ करते थे, अब उनका एक और दुश्मन पैदा हो गई है, वह है महंगाई डायन। कहा जाता है कि डायन भी एक घर छोड़कर हाथ आजमाती है, लेकिन यहां तो उल्टा ही हो रहा है। महंगाई डायन की मार से कोई घर अछूता नहीं है। हर कहीं इसका साया मंडरा रहा है।
महंगाई ने जैसे सरकार को जकड़ ही रखी है और वह उसकी जद से बाहर ही नहीं आ पा रही है। सरकार की करनी को जनता भोग रही है और जनता को सरकार सात नाच नचा रही है, कुछ वैसा ही, जैसे महंगाई, सरकार की नाक में दम कर उसके माथे पर नाचते हुए इतराती है। महंगाई बढ़ते ही सरकारी बेचारी बन जाती है और महंगाई डायन। इस बीच सबसे ज्यादा कोई चिंतित होता है तो वह देश की करोड़ों गरीब भूखे-नंगे लोग। जिन्हें दो जून की रोटी के लिए ‘योजना आयोग’ के मोंटेक बाबू की ओर टकटकी लगाए बैठने पड़ते हैं। वे जिन्हें गरीब कह दें, वह गरीब। वे गरीबों को रातों-रात कागजों में अमीर बनाने की पूरी क्षमता रखते हैं, इसलिए गरीबों का गरीबी से अब 36 का नहीं, बल्कि 26 व 32 का आंकड़ा हो गया है।
जब भी गरीबी का दुखड़ा रोते हुए गरीब लाचारी दिखाता है, इस बीच महंगाई आ धमकती है। सरकार को हर समय धमकाती ही रहती है, जनता के जख्मों को कुरेदने का भी काम करती है। जब भी आती है, कयामत बनकर आती है। गरीबी के झटके सहने, देश की जनता आदी हो चुकी है, लेकिन महंगाई के करंट सहने की ताकत अब उनमें बाकी नहीं है। पिछले एक दशक से महंगाई की मार से जनता पूरी तरह पस्त हो चुकी है। जब सरकार की सारी ताकत फेल हो जा रही है, हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नतमस्तक नजर आ रहे हैं, ऐसे हालात में अनपढ़ व गरीब जनता का क्या मजाल कि वे महंगाई जैसी डायन के आगे ठहर सकेगी ? यही कारण है कि ‘महंगाई की चिता’ में करोड़ों जनता घुट-घुटकर रोज मर रही हैं और जब उफ कहने की बारी आती है तो जुबान को ‘महंगाई की चिंता’ रोक लेती है।
महंगाई के कारण जनता न जाने हर दिन कितनी मौत मरती है, बाजार जाते ही वस्तुओं के दाम सुनते ही हर समय उन्हें नरक के दर्शन होते हैं। एकाएक ऐसा नजारा हो जाता है, जैसे केवल हाड़-मांस ही खड़ा हो। जनता का खून महंगाई इस तरह चूस रही है, जैसे सत्ता के मद चूर कारिंदे, गरीबों का खून बरसों से चूसते आ रहे हैं। अब बेचारी जनता क्या कर सकती है, बस ‘महंगाई की चिता’ में लेटी है और उसकी आग उसे न चाहने पर भी जलाए जा रही है। गरीबों का शरीर भले ही नहीं जल रहा है, लेकिन कलेजे रोज अनगिनत बार छलनी होते हैं। क्या करें, जब किस्मत में ही महंगाई के कारण जिंदा मरना लिखा है।

बुधवार, 2 नवंबर 2011

राहुल जी को भी आता है गुस्सा

मुझे अभी-अभी पता चला कि हमारे भावी प्रधानमंत्री कहे जाने वाले युवराज को भी गुस्सा आता है। इससे पहले मैं तो इतना ही जानता था कि वे शांत सौम्य व्यक्तित्व के धनी हैं। उनमें कई खूबियां हैं, वे गरीबों के घर भोजन करने से परहेज नहीं करते। गरीबों की दाल-रोटी उन्हें खूब रास आती हैं, उनके बच्चे बड़े प्यारे लगते हैं। तभी, कभी भूखे-नंगे बच्चे उनकी गोद की शान बनते हैं तो हमेशा मुरझाया चेहरा, उनके साथ होते ही उमंग में हिलोरे मारने लगता है।
बच्चों को भी उनकी दुलार हमेशा याद आती है। यह स्वाभाविक भी है, उनके जैसी सेलिब्रिटी यदि किसी को छू भी ले तो वह रातों-रात कहां से कहां पहुंच जाता है। इतना जरूर है कि सब कुछ हो सकता है, किन्तु गरीबी दूर नहीं हो सकती। वे पचास साल पहले जहां थे, वहीं रहेंगे। थोड़े समय के लिए सेलिब्रिटी की गोद में उचकने भर से गरीबी पीछे नहीं छोड़ने वाली। गरीबों से उसका नाता जनमो-जनम का है। ऐसा नहीं होता तो हमारे युवराज के माध्यम से जिन्हें पहचान मिली, उनकी गरीबी छू-मंतर हो गई होती। गरीबी जितनी बेचारी होती है, उतने ही गरीब भी बेचारे होते हैं। वे बलि के बकरे बनते रहते हैं, गला काटने के लिए ओहदेदार हर पल लगे रहते हैं। थोड़ा भी फड़फड़ाए तो पर कतर देते हैं। अंततः गरीबी व गरीब, जहां के तहां खड़े रहते हैं और सेलिब्रिटी का आना-जाना लगा रहता है।
अब अपन मुख्य मुद्दे पर आते हैं कि युवराज कहे जाने वाले राहुल जी ने अपने दिल की गहराई में छुपी बात, अब जाकर बताई है। उन्हें राजनीति में पदार्पण किए करीब दशक भर का समय हो गया है, लेकिन उन्होंने गुस्से की बात कभी नहीं की। किसानों के हितों के लिए वे पदयात्रों पर निकल पड़ते हैं, भूखे-नंगे लोगों के बीच कई दिन गुजारते हैं, देश के अलग-अलग इलाकों के छात्रों से मिलते हैं और उनके विचार जानते हैं, यहां उन्हें कई कड़वे सवाल का सामना करना पड़ता है, फिर भी वे शांत रहते हैं। उन्हें गुस्सा नहीं आता। एक नेता उन्हें ‘बछड़ा’ तक कह देता है, उनकी ही पार्टी की एक नेत्री उनकी काबिलियत पर सवाल खड़ी करती हैं। इसके बाद भी राहुल जी उस रीति पर बने नजर आते हैं, जिसके तहत यदि कोई आप पर जितना भी कीचड़ उछाले, शांत बने रहो। कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा जड़े तो दूसरा गाल आगे कर दो।
हमारे युवराज ने अपने गुस्से की बात तब कही, जब वे देश के सबसे बडे़ राज्य उत्तरप्रदेश पहुंचे थे। यहां सियासी भंवर तेजी से करवट ले रहा है, क्योंकि चुनाव जो नजदीक है। चुनावी वैतरणी पार लगाना है तो गरीब का हित चिंतक बनना लाजिमी है। अब राहुल जी को कौन समझाए कि यही उत्तरप्रदेश हैं, जहां आपकी ही सरकार बरसों तक जमी रही और और आपके लोगों की एकतरफा चली। उस समय तो विपक्षी नाम की कोई चिड़िया भी होती थी, यह कहना केवल लफ्फाजी होगी। आपके लोग जो कर देते तथा कह देते, वहीं अंतिम होता था। पहले गरीबों के भाग्य विधाता, आपके लोग ही थे। गरीबों की बेबसी व लाचारगी पर आंसू बहाना ठीक है, लेकिन जैसी आपकी छवि उभरकर आई है, वह दिखे तो ठीक नहीं तो फिर ऐसा गुस्सा किस काम का ?
राहुल जी, आपको किसानों के दर्द देखकर अब गुस्सा आने लगा है। निश्चित ही आप उन राज्यों के किसानों के दर्द को महसूस करिए, जहां आपकी अपनी सरकार है। जहां आपकी चलती है, जरा वहां किसानों की तकलीफों को मिनटों में हल कीजिए ? मैं आपके दर्द को समझ सकता हूं, क्योंकि मैं भी किसान का बेटा हूं। जब आप किसानों के हितों की बात करते हैं, मुझे बहुत खुशी होती है, किन्तु जब दोमुंही बातें होती हैं, तब मैं सोचने लगता हूं कि क्या देश के किसान व गरीब दो पाटों में पीसने के लिए ही बने हैं ? आप गुस्सा करिए, इसमें हम जैसों को कोई आपत्ति नहीं, मगर यह गुस्सा समग्र करें तो आप जैसे शांत मनोभाव के लिए ठीक है और देश की शांत अवाम के लिए भी। अचानक आपका गुस्सा सामने आया है, इससे रोकिए मत। कभी न कभी तो यह गुस्सा फूटकर बाहर आएगा ही और आप जैसा चाहते हैं, वैसा होकर रहेगा। बस, लगे रहिए।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

किसे कराएं पीएचडी

मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं, फिर थमा दो पीएचडी का गठरा। एक बार खुलने के बाद कब खुलेगा, इसका भले ही पता हो।
चलिए छोड़िए पीएचडी की अंदरूनी कहानी को। अब हम फोकस उस बात पर करते हैं, जिस पर अब तक किसी ने पीएचडी नहीं की है और न ही उस व्यक्ति का चयन किया गया है, जिसके नाम पर पीएचडी की जा सकती है। दरअसल, वो विषय है, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी। देश में कला, विज्ञान, अंतरिक्ष के अलावा ढेरों विषयों पर अनगिनत पीएचडी हो चुकी हैं, इसलिए अब इस फेहरिस्त में एक ऐसे विषय को शामिल किया जाना चाहिए, जो आज हर जुबान पर छाया हुआ है और देश की बिगड़ती आर्थिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। यही तो हैं जो हरे-हरे, करारे नोट को काला बनाने में तूले हैं।
इतना तो मैं जानता हूं कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की जमात को सरकार नहीं समझ पा रही है और उसकी सुरंग को खोजने में अक्षम व पंगु भी बन बैठी है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों पर पीएचडी कर पाना मुश्किल है, मगर यह बात भी सही है कि पीएचडी के लिए विषय का चयन बहुत मायने रखता है। इसके लिए उन विषयों को प्राथमिकता दी जाती है, जो अनछुआ हो। ऐसे में मेरा मानना है कि ऐसा विषय फिलहाल नहीं मिलने वाला है, क्योंकि जिसके आगे सब कराह रहे हों ( भले ही भ्रष्टाचारी मौज करे और भ्रष्टाचार इतराये )।
अब सवाल उठता है कि इस कठिन विषय पर पीएचडी कौन करेगा और भ्रष्टाचारियों की फेहरिस्त भी धीरे-धीरे लंबी होती जा रही है, इसलिए पहला नाम कौन सा होगा, जिस पर पीएचडी केन्द्रीत हो। भ्रष्टाचार, जिस तरह जनता के सामने इतराता है, वैसे ही पीएचडी के लिए आतुर खड़ा रहेगा, लेकिन भ्रष्टाचारी कतार में आए, तब ना। जो भी हो, अब इस विषय में पीएचडी के लिए देरी नहीं होनी चाहिए। नाम चाहे किसी का भी तय हो, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भ्रष्टाचार करने भ्रष्टाचारियों में प्रतिस्पर्धा दिखाई जरूर देती हो, किन्तु जो नाम सबसे उपर है, वही इसका पहला हकदार बनना चाहिए। उसके बाद जैसे अन्य विषयों में ध्यान केन्द्रीत किया जाता है, वैसा ही फण्डे पर काम किया जाए। एक पर पीएचडी होने के बाद लाइन में कई लगे हुए हैं, इसलिए विषय से भटकने का सवाल ही नहीं उठता, जैसे अन्य विषयों में हम देखते आ रहे हैं। भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के विषय पर आज जितना जाना-समझा जा सकता है, वह कम ही होगा। इसलिए अब तो हम सब को मिलकर तय करना ही होगा कि आखिर किसे कराएं पीएचडी ?

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

जहां-तहां अन्नागिरी

समाजसेवी अन्ना हजारे ने पिछले दिनों तेरह दिनों तक अनशन करकेअन्नागिरीको हवा दे दी है। देश में अब तक नेतागिरी, चमचागिरी, बाबागिरी की हवा चल रही थी। अन्नागिरी के हावी होते ही अभी भ्रष्टाचारियों के मूड खराब हो गए हैं, क्योंकि जहां-तहां अन्नागिरी ही छाई हुई है। हर जुबान से बस अन्नागिरी की लार लपक रही है। किसी को अपनी बात मनवानी है तो वह, बस अन्नागिरी करने लग जा रहा है। वैसे हमारे समाजसेवी अन्ना जीअनशनके लिए माहिर माने जाते हैं, लेकिन उनके पीछे जो लोगअन्नागिरीका सहारा लेने लगे हैं, उनका ऐसा कोई अनुभव नहीं है। वे गाहे-बगाहे चल पड़े हैं, अन्नागिरी की राह पर। अन्ना जी जब भी अनशन करते हैं, उन्हें पता है कि जीत उन्हीं की ही होगी, क्योंकि वे अब तक दर्जन भर से अधिक बारअनशनके जादू की झप्पी ले-दे चुके हैं। आधुनिक युग के गांधी के बताए मार्ग पर चलने वालों को पता ही नहीं कि उनकी जैसी जादू की झप्पी कैसे दी जाए। कोशिश हो रही है, अन्नागिरी की कतार में खड़े होने की।
आजादी के पहले गांधी जी उपवास करते थे। मौन व्रत रखते थे। उनका मकसद होता था, देश की जनता को जगाना और अंग्रेजों को भगाना। नए भारत के गांधी कहे जा रहे अन्ना जी, केवल भ्रष्टाचार के भूत के पीछे पड़े हैं। वे जन लोकपाल बिल लाना चाहते हैं। वे खुद कहते हैं, भ्रष्टाचार का भूत, देश के भ्रष्टाचारियों में पूरी तरह से समाया हुआ है और इसे फिलहाल आधे ही दूर किया जा सकता है। भ्रष्टाचार के भूत को भगाने वे ‘अनशन’ का मंत्र भी मार रहे हैं, लेकिन सरकार उन्हें बस बरगलाए जा रही है और भ्रष्टाचार, उनकी आंखों को खटक रहा है।
अन्ना जी जो चाहते हैं, उसके लिए उन्हें कुछ महीने और रूकना पड़ेगा, क्योंकि भ्रष्टाचार की काली छाया के आगे किसी की नहीं चल पा रही है। सरकार की तो घिग्घी बंध गई है। उसे न तो खाते बन रहा है और न ही उगलते। भ्रष्टाचार के साये में आने वालों की फेहरिस्त बढ़ती जा रही है, जो कभी सरकार से कंधे से कंधा मिलाकर चला करते थे। ऐसे भ्रष्टाचारियों को कंधे का साथ तो दूर अब उनसे हाथ मिलाने वाला भी नहीं मिल रहा है, क्योंकि हाथ लगे कालिख को छूने की हिम्मत कैसे जुटाई जा सकती है ? भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हालात बने हैं, वह तो बस अन्नागिरी का ही कमाल है, नहीं तो मजाल है, किसी का बाल-बांका भी होता।
करोड़ों जनता की तरह मैंने भी देखा है कि देश में भ्रष्टाचार कैसे पनपा है और भ्रष्टाचार के आगोश में अनगिनत चेहरे समाए रहे हैं, किन्तु किसी को आंच आ सकी ? वो तो अन्नागिरी की कृपा है, जिसकी बदौलत भ्रष्टाचारियों की करतूतों पर लगाम कसी जा रही है। कुछ दिनों के अंतराल में भ्रष्टाचारियों की एक नई सूची तैयार हो रही है। कई बड़े नाम तिहाड़ की जिंदगी जी रहे हैं। अन्नागिरी से सरकार की फजीहत तो हुई ही, अब अन्न्नागिरी के कारण कइयों की किरकिरी होने लगी है, क्योंकि अपनी मांग या बात मनवाने के लिए ‘अन्नागिरी’ किसी ब्रम्ह शस्त्र से कम साबित नहीं हो रही है।
जिधर देखो, वहां अन्नागिरी की धूम है। आजादी के पहले ‘गांधीगिरी’ छाई रही। बाद में ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म में गांधीगिरी की झलक दिखी, उसके औंधे मुंह सोए लोगों को एकबारगी गांधी जी की गांधीगिरी याद आई। मैं तो यही कहूंगा कि देश में इंकलाब का रूप ले लिया है, अन्नागिरी ने। अन्ना के अनशन के दौरान मशाल उठाए लोगों की सोच ‘भ्रष्टाचारियों की मानसिकता से ‘भ्रष्टाचार के भूत’ उतारने की रही और वे सड़क पर उतर आए।
अब तो ‘अन्नागिरी’ भी सड़क पर आ गई है। मांग या अपने समर्थन में अन्नागिरी एक सशक्त माध्यम बनी हुई है। जितनी शक्ति व समर्थन अन्नागिरी को मिल रहा है, उतना मीडिया को अभी नसीब नहीं हो रहा है। अन्नागिरी के आगे हर बात व चीज धुंधली हो गई है। जब बात बिगड़ती दिखे और कोई आपकी मांगों को गौर नहीं कर रहा है तो बस अन्नागिरी की राह पर उतर आइए। देश में अन्नागिरी का ही धमाल है, क्योंकि यही सबसे ताकतवर टीम साबित हो रही है। वर्ल्ड कप जीता चुके भारतीय किकेट टीम के खिलाड़ी भी, अन्नागिरी के खिलाड़ियों के आगे कमतर ही नजर आ रहे हैं, क्योंकि मीडिया इन जैसों को हाथों-हाथ ले रहा है। फिलहाल देश में केवल अन्नागिरी का ही जलवा है, नेतागिरी व बाबागिरी दूर-दूर तक नहीं फटक रही हैं। चमचागिरी का तो नामो-निशान मिटती नजर आ रही है, क्योंकि अन्ना टीम यही कह रही है कि हम हैं तो दम है। मुझे लगता है कि आपके आसपास भी ‘अन्नागिरी की बाजीगरी’ जरूर दिख रही होगी।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

अस्पताल का मनमोहक सुख

एक बात सब जानते हैं कि जब हम बीमार होते हैं, तब इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं और डॉक्टर नब्ज समझकर इलाज करते हैं। अस्पताल जाने के बाद बीमारी छोटी हो या बड़ी, गरीबों के लिए कुछ ही दिन अस्पताल ठिकाना बन पाता है। गरीबों के लिएगरीबीअभिशाप अभी से नहीं है, जमाने से ऐसा ही क्रूर मजाक चल रहा है। हर हालात में गरीब ही बेकार का पुतला होता है, जिसकी ओर देखने की किसी को फुरसत तक नहीं होती, वहीं जब कोई मालदार, अस्पताल की दहलीज पर पहुंचता है, उसके बाद गरीबों को हेय की दृष्टि से देखने वाले भी, उनकी तिमारदारी में लग जाते हैं। मनगढ़ंत बीमारी का शुरूर सर चढ़कर बोलता है, क्योंकि पैसा भी बोलता है।
देश में बीमारी इस कदर बढ़ रही है कि इलाज करने वाले भी नहीं मिल रहे हैं। महंगाई की बीमारी से जनता मरे जा रही है, भ्रष्टाचार की बीमारी तो संक्रामक हो चली है। जहां देखें वहां, भ्रष्टाचार की बीमारी ने पैर पसार लिया है। इस बीमारी की चपेट में अभी बड़े-बड़े सफेदपोश लोग आने लगे हैं, उनके पास अथाह पैसा भी है, जिससे वे इस बीमारी पर थाह भी पा ले रहे हैं, लेकिन कुछ लोग बीमारी की नब्ज पकड़ने में असफल साबित हो रहे हैं और वे तिहाड़ की शोभा बढ़ाते हुए वहां इलाज का मर्ज ढूंढने में लगे हैं।
भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद सफेदपोशों का बस नहीं चलता, उसके बाद उन पर सरकार की चाबुक चलती है। चाबुक ऐसी कि वे संभल ही नहीं पाते और हालात ऐसे बन जाते हैं कि बड़े से बड़ा कद्दावर का कद भी छोटा हो जाता है।
मैं एक अरसे से देखते आ रहा हूं कि सफेदपोश लोग, जब भ्रष्टाचार की बीमारी की चपेट में आने के बाद इलाज कराने रूचि नहीं लेते, लेकिन जैसे ही जेल की राह पकड़ते हैं। वे इलाज के लिए तड़प पड़ते हैं। दर्द इतना होता कि वे कराह उठते हैं। वैसे भी जेल, किसी को भी रास नहीं आती, यही कारण है कि जेल जाते ही ‘अस्पताल’ याद आ जाता है और भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद बरसों तक इलाज कराने के तैयार नहीं रहने वाला भी ‘अस्पताल’ पहुंचने को आतुर हो जाता है। अस्पताल में इलाज भी ऐसे जारी रहता है, जैसे वह ऐसी बीमारी से ग्रस्त है, जिसका इलाज संभव ही नहीं। जाहिर सी बात है कि अस्पताल के सुख और जेल की चारदीवारी, दोनों में अंतर है। इलाज के नाम पर कुछ भी खाया जा सकता है, जेल में मनचाहा स्वाद कहां नसीब होता है। जेल में महज कुछ फीट जमीं पर गुजारा होता है, जो व्यक्ति जीवन पर यायावर की तरह घूमने का आदी हो, उसका मन कैसे एक जगह पर लग सकता है ? इसी के चलते जेल जाते ही, ‘अस्पताल’, मंदिर की तरह याद आता है। जेल तो नरक ही लगती है, क्योंकि सारे जहां का सुख यहां नहीं होता।
इतना जरूर है कि जेल से अस्पताल पहुंचते ही, नरक का माहौल स्वर्ग में बदल जाता है। दो-चार दिनों की बीमारी के इलाज में महीने भर लग जाते हैं। गरीबों की नब्ज को महज हाथ देखकर समझ लिया जाता है, लेकिन सफेदपोशों की बीमारी को मशीन भी समझ नहीं पाती। कई दिनों तक जांच के बाद भी बीमारी का मर्ज पता नहीं चलता। लिहाजा, अस्पताल में सुख को कैश करने का पूरा मौका मिलता है, यह सब जेल में मुमकिन ही नहीं होता।
जब भी कोई सफेदपोश जेल पहुंचता है, उसके बाद आप तय मानिए, उसकी ‘अस्पताल’ जाने की चाहत जरूर सामने आती है। महीनों-महीनों बीमार नहीं पड़ने वाले सफेदपोश को, जैसे ही जेल की हवा खानी पड़ती है। एसी कमरे में दिन गुजारने वाले को जेल की गर्मी बर्दास्त नहीं होती, मगर ‘नोट की गरमी’ बर्दास्त करने के लिए हर पर दो पांव पर खड़े नजर आते हैं।
मेरा तो यही कहना है कि जब बीमारी को हाथ लगाने से डर नहीं लगता कि कहीं यह संक्रामक साबित न हो जाए और कभी भी चपेट में ले सकती है। इस बात के बिना गुमान किए ‘भ्रष्टाचार’ की गहराई में कूद पड़ते हैं। उन्हें जेल के सुख का भी मजा लेना चाहिए। वे अस्पताल के मनमोहक सुख के आगे नतमस्तक नजर आते हैं। मैंने कभी नहीं सुना कि किसी गरीब को जेल होने के बाद उसकी तबियत बिगड़ी हो और वह अस्पताल के सुख का इच्छा जताता हो। जेल की चारदीवारी में चाहे-अनचाहे उन्हें रहनी पड़ती है, अस्पताल की मौज गरीबों को कहां नसीब होती, क्योंकि उसके लिए खुद का जेब गर्म होना जरूरी होता है। इस मामले में सफेदपोश दसियों कदम आगे होते हैं, तभी उनका ‘जेल’ से लेकर ‘अस्पताल’ तक सिक्का चलता है। भला, मनमोहक सुख कौन पाना नहीं चाहता। ये अलग बात है कि अपना-अपना नसीब होता है।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री

पहले मैं अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर लेता हूं। जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे, उस दौरान शिक्षक हमें यही कहते थे कि प्रधानमंत्री बनोगे तो क्या करोगे ? इस समय मन में बड़े-बड़े सपने होते थे। उस सपने को पाले बैठे, अपन आज बचपन से जवानी की दहलीज में पहुंच गए हैं। हम जैसे देश में जाने कितने, यह सपना देखते हैं, लेकिन खुली आंख से सपना कहां पूरा होता है ? ये अलग बात है कि कई बार ऐसा होता है, जब व्यक्ति सपना तक ही नहीं देखा रहता और प्रधानमंत्री बन जाता है। बिन मांगे मुराद मिल जाती है और जीवन की वैतरणी पार लग जाती है, क्योंकि ऐसी किस्मत का धनी होना, मामूली बात नहीं होती।
देश में प्रधानमंत्री का पद कितना महत्वपूर्ण होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यहां तो एक अनार-सौ बीमार वाली स्थिति हर पल बनी रहती है। कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी को छोड़ा नहीं, उससे पहले कतार में दर्जनों नजर आते हैं। कइयों की हालत ऐसी है कि प्रधानमंत्री को ‘प्रधानमंत्री’ नहीं समझते, उंगली करने से बाज नहीं आते। जब मन करता है, दूसरे को प्रधानमंत्री बनाने का हिमाकत करने लगते हैं। यह नहीं सोचते कि अभी प्रधानमंत्री बनकर जो बैठा है, देश को भी बड़े आनंद के साथ चला रहा है, उसे कितना बुरा लगेगा। करोड़ों लोगों के बीच से निकलकर, ऐसे पद को सुशोभित करने का सौभाग्य हर किसी को थोड़ी न मिलता है। जिन्हें मिल गया है, उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी का भरपूर रसपान करने पूरी छूट दी जानी चाहिए, लेकिन टांग खींचने वाले बाज आए, तब ना। हर धतकरम करने लगे रहते हैं, पूरी छटपटाहट रहती है, कुर्सी से उतारने की, किन्तु कुर्सी पर अंगद के पाव की तरह जमे होने के बाद, कोई कहां हटता है ?
खैर, मूल बात पर आते हैं कि बचपन में मैंने जो सपना संजोए रखा था, वह आज भी ताजा है। चाहता तो हूं कि मैं प्रधानमंत्री बनूं, लेकिन इतनी हैसियत नहीं कि चुनाव लड़ सकूं। इतने खर्चीले चुनाव का बोझ सहना मेरे बस की बात नहीं है। सोच रहा हूं, पिछले दरवाजे का सहारा ले लूं, जहां से कई खासमखास पहुंचते हैं। बिना चुनाव लड़े, कुर्सी तक पहुंच जाउं, इसके लिए हर तरह के गणित बिठाने की जुगत में लगा हूं। देखता हूं, शतरंज के चौरस में अपनी गोटी भारी पड़ती है कि नहीं। मेरा मन प्रधानमंत्री बनने के लिए तड़प रहा है, लेकिन मेरा रास्ता ही साफ नहीं हो रहा है। रास्ते में कई रोड़े नजर आ रहे हैं। कई लोग मुझे हूटिंग तक करने लग गए हैं। इससे मेरा मनोबल टूटने वाला नहीं है, मैं पूरी तरह ठानकर बैठा हूं कि कुछ भी हो जाए, प्रधानमंत्री बनकर दिखाना ही है और स्कूल में पढ़ते समय जो ख्वाब, देश को अग्रसर करने का देखा था, उसे पूरा करना ही है।
प्रधानमंत्री बनने के लिए मेरा मन हिलोर मार रहा था, इसी बीच मेरी अंतरात्मा से आवाज आई कि यह पद काजल की कोठरी की तरह हो गया है। आजादी के समय, जो हालात थे, वह आज नहीं है। एक दौर था, जब पद को लात मारा जाता था, अब पद को शिरोधार्य किया जाता है, भले ही जनता के बद्दुआओं के जितने भी जूते पड़ जाए। आज मैं देख रहा हूं कि तोहफे में ‘प्रधानमंत्री पद’ मिलता है और उसके बाद भ्रष्टाचार, महंगाई की तोहमत, सिर पर उठानी पड़ती है।
इन बातों को सोच-सोचकर मेरा मन भर आया है कि मैं, प्रधानमंत्री बनने के सपने को खटकने तक नहीं दे रहा हूं। इतना तय है कि बड़ा बनना है तो बड़े सपने देखो। कुछ नहीं बन पाए तो कतार में कहीं न कहीं, कुछ हाथ आएगा ही। मन से प्रधानमंत्री बनने का भूत उतर गया है, लेकिन खुद को कतार में खड़े होने का अहसास पाता हूं। मेरे जैसे और भी कई हैं, जो पीएम वेटिंग की लिस्ट में हैं। इस फेहरिस्त में मैं दूर-दूर तक नहीं ठहरता। मेरा नंबर आने वाला नहीं है, इसलिए मैं कहता हूं कि ‘मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री’। ऐसी स्थिति में न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रावण के दर्द को समझिए

हर साल जाने कितनी जगहों में रावण का दहन किया जाता है और खुशियां मनाते हुए पटाखे फोड़े जाते हैं, मगर रावण के दर्द को समझने की कोई कोशिश नहीं करता। अभी कुछ दिनों पहले जब दशहरा मनाते हुए रावण को दंभी मानकर जलाया गया, उसके बाद रावण का दर्द पत्थर जैसे सीने को फाड़कर बाहर गया। रावण कहने लगा, उसकी एक गलती की सजा कब से भुगतनी पड़ रही है। गलती अब प्रथा बन गई है और पुतले जलाकर मजे लिए जा रहे हैं। सतयुग में की गई गलती से छुटकारा, कलयुग में भी नहीं मिल रहा है।
रावण ने अपना संस्मरण याद करते हुए कहा कि भगवान राम ने अपने बाण से उसका समूल नाश कर दिया था। सतयुग में जो हुआ, उसके बाद पूरी करनी पर, आज की तरह पर्दा पड़ जाना चाहिए था। जिस तरह देश में भ्रष्टाचार, सुरसा की तरह मुंह फैलाए बैठा है। महंगाई, जनता के लिए भस्मासुर साबित हो रही है। इन बातों पर कैसे सरकार पर्दा डाले जा रही है। ये अलग बात है कि लाख ओट लगाने के बाद भी तालाब में उपले की तरह बाहर कुछ न कुछ आ ही जा रहा है। दूसरी ओर रावण की एक करनी के बाद, कितनी मौत मरनी पड़ रही है। जगह-जगह वध होने के बाद रावण रूपी माया खत्म ही नहीं हो रही है, लेकिन देश को विपदाओं का दंश झेलने पर मजबूर करने वाली सरकार का वध क्यों नहीं हो रहा है। रावण का मर्म में समझ में आता है, लेकिन उसकी तरह जनता हामी भरे, तब ना।
रावण के पुतले को जलाने के बाद हमारी संतुष्टि देखने लायक रहती है, जैसे हमने पूरे ब्रम्हाण्ड में फतह हासिल कर ली हो। जिस तरह रावण ने अपने तप से हर कहीं वर्चस्व स्थापित कर लिया था। वे चाहते तो हवा चलती थी, वो चाहतेे तो समय चक्र चलता था। इतना जरूर है कि लोगों के शुरूर के आगे रावण भी इस कलयुग में नतमस्तक नजर आ रहा है। यही कारण है कि वह अपने दर्द को छिपाए फिर रहा है। भला, अनगिनत जगहों पर हर बरस जलाने के बाद किसे दर्द नहीं होगा, किन्तु वे परम ज्ञानी हैं, इसलिए अपने दर्द को सीने में लादे बैठे हैं। रावण को दर्द सालता जरूर है और टीस से कराह पैदा होता है, लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है ? मनमौजी लोगों के आगे उनकी कहां चलने वाली है। वे चाहें तो साल में नहीं, हर दिन रावण दहन कर दे, लेकिन केवल पुतले का। ऐसा हमारे राजनीतिक दल के नेता करते भी हैं, कुछ हुआ नहीं, ले आए किसी का पुतला बनाकर और दाग डाले। इस बात से कोई इत्तेफाक नहीं रखता कि जैसे हम रावण के पुतले जलाते हैं, वैसे ही हम उन लोगों का समूल नाश करने की सोंचे, जो भ्रष्टाचार की जड़ मजबूत किए जा रहे हैं। ऐसे लोगों की सफेदपोश शख्सियत के आगे हम नतमस्तक नजर आते हैं, जैसे रावण के पुतले हमारे सामने। यही सब बात है, जिस दर्द का अहसास, रावण को हर पल होता है।
हमारे देश की सरकार थोड़ी न है, जिसे दर्द का अहसास ही नहीं। गरीब चाहे जितनी भी गर्त में चले जाएं, महंगाई जितनी चरम पर पहुंच जाए। भ्रष्टाचार से देश में जितना भी छेद पड़ जाए, इन बातों से हमारी सरकार कहां कराहने वाली है। ये सब महसूस करने के लिए देश में भूखे-नंगे गरीबों की जमात, जो है। गरीबों की किस्मत, रावण से कम नहीं है, रावण को एक गलती का खामियाजा न जाने कब तक भुगतना पड़ेगा, वैसे ही सरकारी कर्णधारों के रसूख के आगे बेचारी जनता की लाचारगी, वैसी ही है। पुतले के रूप में खड़ा रावण खुद को जलते हुए देखता है और जुबान भी नहीं खोल पाता और उफ भी नहीं कर पाता। यही कुछ हाल, गिने जा सकने वालों के आगे करोड़ों लोगों का है।
यही कहानी अनवरत चल रही है। सरकार, गरीबों का दर्द नहीं समझती और हम रावण का दर्द नहीं समझते। बस, बिना सोचे-समझे उसे हर साल जलाए जा रहे हैं। कोशिश हमारी यही होनी चाहिए, पहले मन के रावण को मारें, फिर देश के रावणों का नाश कर खुशियां मनाएं। इसके लिए हमारा सबसे बड़ा हथियार है, वो है हमारी वोट की ताकत। हमें पुतले पर नहीं, जीते-जागते सफेदपोशों पर चोट करनी चाहिए। तब देखें, ‘रावण’ की तरह ‘रीयल लाइफ के रावणों’ को दर्द होता है कि नहीं ?

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भ्रष्टाचार की आप बीती

देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में मैं सोच ही रहा था कि अचानक भ्रष्टाचार प्रगट हुआ और मुझे अपनी आप-बीती सुनाने लगा। मुझे लगा, भ्रष्टाचार जो कह रहा है, वह अपनी जगह पर सही है। भ्रष्टाचार कह रहा था कि देश में काला पैसा बढ़ रहा है और कमीशनखोरी हावी हो रही है, भला इसमें मेरा क्या दोष है ? दोष तो उसे देना चाहिए, जो भ्रष्टाचार के नाम को बदनाम किए जा रहे हैं। केवल भ्रष्टाचार पर ही उंगली उठाई जाती है, एक भी दिन ऐसा नहीं होता कि कोई भ्रष्टाचारियों पर फिकरी कसे और देश के माली हालात के लिए जिम्मेदार बताए।
भ्रष्टाचार बड़े भावुक होकर कहने लगा कि बार-बार उसे ही अपमानित किया जाता है। जब कोई घोटाला होता है, मीडिया से लेकर देश की अवाम भूल जाती हैं कि इसमें भ्रष्टाचारियों की मुख्य भूमिका है, न कि भ्रष्टाचार की। भ्रष्टाचार, खुद को भ्रष्टाचारियों का महज सारथी बताता है। उसका कहना है कि भ्रष्टाचारी, उसे जो कहते हैं, वो वह करता है। भ्रष्टाचारियों के साथ चलने का ही दंश झेलना पड़ रहा है।
भ्रष्टाचार ने दर्द का इजहार करते हुए बताया कि वह चाहत तो है, किसी तरह भ्रष्टाचारियों से उसका साथ छूट जाए। इसके लिए कई बार माथा-पच्ची भी की। जब भ्रष्टाचारी अपनी करतूत से देश को आर्थिक संकट में डालते हैं, उसके बाद मेरी पहली मंशा रहती है कि घपले-घोटाले की पुख्ता जांच हो और भ्रष्टाचारियों को सजा हो, मगर तब मेरी सोच पर पानी फिर जाता है, जब जांच, दशकों तक चलती रहती है और बाद में नतीजा सिफर ही रहता है। कई बार तो जांच के बाद भी भ्रष्टाचारियों पर आंच नहीं आती है, ऐसी स्थिति बन जाती है, जैसे सांच को आंच क्या ? बस, भ्रष्टाचार ही बदनाम होता है और मुझे कोई न कोई तमगा भी मिल जाता है।
भ्रष्टाचार चाहता है कि जिस तरह वह जनता का कोपभाजन बनता है और तड़पता है तथा अपने हाल पर रोता है, वैसा हाल भ्रष्टाचारियों का भी हो। फिर अफसोस भी जाहिर करता है कि यहां ऐसा संभव नहीं है। उसने कहा कि आज तक किसी भ्रष्टाचारी पर कानून के लंबे हाथ पहुंच सका है। तिहाड़ भी पहुंच गए तो मौज को भी ‘कैश’ से ‘कैस’ करते हैं। बात-बात पर मुझे ही कटघरे में खड़ा किया जाता है, जिसे जायज नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार अपनी स्थिति पर आहें भरते हुए अपनी आप-बीती आगे बढ़ाते हुए कहा कि उसका हाल, ‘करे कोई और भरे कोई’ की तरह है। सब करनी भ्रष्टाचारी करते हैं और करोड़ों जनता की आंखों की किरकिरी, भ्रष्टाचार बनता है। सब खरी-खोटी भ्रष्टाचार को सुनाते हैं, दिन भर लोग उसे श्राप देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार का नाश हो जाए। हालांकि, भ्रष्टाचार इस श्राप पर मजे लेता है और कहता है कि वह तो हर पल मिटने को तैयार है, किन्तु भ्रष्टाचारी इस देश से मिटे, तब ना। भ्रष्टाचारियों से उसका साथ तो चोली-दामन का है।
अंत में, भ्रष्टाचार ने अपने संदेश में कहा कि उस पर कीचड़ उछालने और घोटाले के लिए भ्रष्टाचार की खिलाफत कर, खुद का कलेजा जलाने से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि इसमें उसका कोई हाथ नहीं है, सब किया-धराया भ्रष्टाचारियों का है। जब तक देश में भ्रष्टाचारी पननते रहेंगे, मजाल है कि कोई भ्रष्टाचार की शख्सियत को खत्म कर दे। भ्रष्टाचारियों की करतूत जितना देश के टकसाल को खोखला करने में लगी रहेगी, उससे भ्रष्टाचार की चांदी बनी रहेगी। भ्रष्टाचार इतराता है और कहता है, मेरा इन सब से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। उल्टे, दिनों-दिन मेरी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही है। आज मेरा नाम हर घर तथा जुबान तक है। मेरी पहचान इस कदर कायम है कि इतिहास से मुझे मिटाया नहीं जा सकता।
भ्रष्टाचार हुंकार भरते हुए कहता है, नहीं लगता कि भ्रष्टाचारियों का कद मेरा इतना होगा, लेकिन देश की आर्थिक कद घटाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है। इस बात को देश के लोगों को समझना चाहिए और जो भी कहना है, वह भ्रष्टाचारियों को कहें, तभी कुछ होगा। केवल मन का भड़ास निकालने से काम चलने वाला नहीं है। फिर कुछ ही क्षण बाद, भ्रष्टचार मेरी नजरों के सामने से ओझल हो गया। केवल इन पलों की यादें ही शेष रह गईं।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

अन्ना जी, आप भी...

मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना’, यहां भी अन्ना, वहां भी अन्ना’, ‘अन्ना नहीं ये आंधी है, नए भारत का गांधी है’, ऐसे ही कुछ नारों से पिछले दिनों रामलीला मैदान गूंजायमान था। तेरह दिनों तक चले अनशन के बाद अन्ना, गांधी जी के अवतरण कहेे जा रहे हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि दुनिया में दूसरा गांधी, कोई हो नहीं सकता। खैर, अन्ना के आंदोलन के बाद दुनिया में एक अलग लहर चली है, आजादी की दूसरी लड़ाई की।
हमारे अन्ना अब चुनाव लड़ने की नहीं, लड़वाने की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं कि ऐसे युवा जिनकी छवि बेदाग हो, वे निर्दलीय चुनाव लड़ें। वे चुनाव प्रचार भी करने जाएंगे। यह तर्क का विषय हो सकता है कि अन्ना टीम के एक सदस्य ने चुनाव से तौबा बात कही थी, फिर राजनीति की गंदगी को साफ करने के इरादे का रहस्य क्या है ? जिन्हें अन्ना से भ्रष्टाचारी नेताओं को डर लग रहा था, वो भी खुश होंगे कि चलो, अब चुनावी कुस्ती एक साथ तो होगी।
मैं इसके बाद यही सोच रहा हूं कि आखिर अन्ना को हो क्या गया है ? अन्ना जी तेरह दिनों तक जुटी अपार भीड़ और समर्थन को हर तरह से अपने पक्ष में मान रहे हैं। जब उनका आंदोलन चला, उस दौरान हमारे कई नेता सठिया जरूर गए थे, लेकिन चुनाव में शातिर दिमाग वाले नेताओं के आगे कोई टिक नहीं सकता। इससे पहले हमारे शरीर दुरूस्ती में अहम भूमिका निभाने वाले ‘बाबाजी’ ने भी चुनाव लड़ाने की सोची थी। वे अपनी योग क्रिया में हर तरह से सफल हुए, मगर चुनाव में वे भोगी बन चुकी जनता के आगे नतमस्तक हो गए। जिन-जिन को उन्होंने समर्थन दिया, वे चुनावी समर से बाहर हो गए। एक ने भी चुनावी नैया पार नहीं लगाई। इन बातों को जानने के बावजूद किस रणनीति के साथ अन्ना चुनाव लड़ाने वाले हैं, वे ही जानें।
अन्ना जी से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आपके साथ देश की करोड़ों जनता है। आप इसी तरह से समाज सेवा में लगे रहेंगे, वे आपके हम कदम बने रहेंगे। इतना जरूर है कि जब आप चुनावी दमखम दिखाएंगे, उसमें कितने आपके साथ देंगे, कह नहीं सकते ? मैं बाबाजी से पहले की स्थिति से वाकिफ हूं कि किस तरह ऐन वक्त पर हमारी जनता गुलाटी मार जाती है। हम सोचते रहते हैं कि ये हमारे साथ ही है, किन्तु चुनावी परिस्थिति ऐसी बनती है कि वे अपने पाले से चले गए होते हैं।
अन्ना जी आज की राजनीति को न जाने किस-किस तरह की संज्ञा दी जाती है, फिर भी इसकी सफाई में आप उतरने वाले हैं। आप ये तो जानते होंगे कि काजल की कोठरी में जाने से खुद के भी कपड़ें काले हो जाते हैं। हमारे बहुचर्चित बाबाजी ने जब चुनाव में भागीदारी की बात कही, उसके बाद हमारे चतुर व शातिर राजनीति के पैरोकारों ने उनका जिस तरह चौतरफा मान घटाया। उन्हें न जाने क्या-क्या कहा, कोई उन्हें ठग कहते फिर रहा है, कोई कह रहा है, चतुर सयाना। ये तो मैं जानता हूं कि जब कीचड़ में पत्थर मारा जाता है, उसके बाद कीचड़ की छींटे, खुद पर भी आती हैं। मैं ये भी जानता हूं कि आप इन सब कीचड़ के डर से अपनी बातों से डिगने वाले नहीं है। देश की राजनीति में निश्चित ही गंदगी भर आई है, उसकी सफाई होनी चाहिए, लेकिन आप जिन समाजसेवी कार्यों से लोगों के दिल में समाए हैं, उससे यह तय नहीं हो जाता कि प्रत्येक जनता की आस्था आप पर है।
मैं हर चुनाव के समय देखता हूं कि कैसे, हमारी जनता की आस्था बेसिर-पैर की हो जाती है। जहां पैसों की खनखनाहट सुनाई देती है, उसी की हो लेती हैं। जिन जनता की खातिर, आप तेरह दिनों तक कुछ भी खाए-पीए नहीं, वही चुनाव में आपके समर्थक का खूब खाएंगे-पीएंगे, मगर गाएंगे, कुछ नहीं। ऐसा पहले नहीं होता तो मैं आपके निर्णय को सार्थक मानता, पर जनता के रग-रग से वाकिफ होने के बाद मुझे आप पर तरस आ रहा है कि आप क्यों राजनीति के दलदल में समा रहे हैं। जिन्हें दूसरों पर कीचड़ उछालने की आदत होती है, वही यहां महारत हासिल करता है। बिना तीन-पांच किए चुनावी वैतरणी पार नहीं लगती, कइयों को सबक सीखानी पड़ती है। हमारे गांधी जी जिससे नफरत करते थे, उसे भी छककर पिलानी पड़ती है।
आप तो नए भारत के गांधी हैं, आपको देश की राजनीति की बेवजह फिक्र नहीं करनी चाहिए। बरसों से वंश दर वंश राजनीति चल रही है। इसमें आपको कूदने की जरूरत नहीं है। आप जनता के हमदर्द बने रहें, उन्हें राष्ट्र हित का बोध कराते रहें। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते रहें, मगर राजनीति में किसी को लड़ाने की खूबी, मुझे आप में नजर नहीं आती है। इसीलिए मैं कही कहूंगा कि अन्ना जी, आप भी...।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

गरीबी के झटके

देखिए, गरीबों को गरीबी के झटके सहने की आदत होती है या कहें कि वे गरीबी को अपने जीवन में अपना लेते हैं। पेट नहीं भरा, तब भी अपने मन को मारकर नींद ले लेते हैं। गरीबों कोएसीकी भी जरूरत नहीं होती, उसे पैर फैलाने के लिए कुछ फीट जमीन मिल जाए, वह काफी होती है। गरीब, दिल से मान बैठा है कि अमीर ही उसका देवता है, चाहे जो भी कर ले, उसमें उसका बिगड़े या बने। गरीबी का नाम ही बेफिक्री है। फिक्र रहती है तो बस, दो जून रोटी की। रोज मिलने वाले झटके की परवाह कहां रहती है ?
गरीबों को झटके पर झटके लगते हैं। गरीबी, महंगाई के बाद, अब भ्रष्टाचार से झटके लग रहे हैं। गरीबों के हिस्से का पैसा अमीरों की तिजोरियों की शान बनता जा रहा है। अब तो इन पैसों ने अपना रूप भी बदल लिया है। कभी यह पैसा सफेद होता है, कभी काला। सफेदपोश अमीर अपनी मर्जी के हिसाब से पैसे का रंग बदलते रहता है। इतना जरूर है कि इन बीते सालों में न तो गरीबी का रंग बदला है और न ही गरीबों का। गरीबों की देश में इतनी अहमियत है कि ‘जनसंख्या यज्ञ’ में नाम शामिल होता है, मगर जब ‘योजना यज्ञ’ शुरू होता है, फिर उसमें ओहदेदारों की वर्दहस्त होती है। गरीब कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। गरीबी, भीड़ तंत्र की महज हिस्सा बनती है और गरीब, सफ ेदपोश अमीरों के लिए होता है, मजाक।
देश से गरीबी हटाने के दावे होते हैं, मगर गरीबी पर तंत्र हावी नजर आता है। जनसंख्या जिस गति से बढ़ रही है, उसी गति से गरीबी भी बढ़ी है। देश में गरीबी के साथ अब हर क्षेत्र में उत्तरोतर प्रगति हो रही है। देश में महंगाई बढ़ रही है। कोई भी भ्रष्टाचार करने में पीछे नहीं है। दुनिया में हम नाम कमा रहे हैं। भ्रष्टों की उच्चतम श्रेणी में कतारबद्ध हैं, जैसे कोई तमगा मिलने वाला है। सरकार ने जैसे ठान ही ली है कि देश से गरीबी खत्म की जाएगी। भले ही सही मायने में ऐसा न हो, मगर कागजों में हर बात संभव होती है। जैसा सोच लिया, वैसा हो जाता है। यही कारण है कि गरीबों की आमदनी पर भी नजर पड़ गई है। भूखे पेट की चिंता करने वाले गरीबों को इस बात का अब डर लगा रहता है कि कहीं उसके घर आयकर का छापा न पड़ जाए। सरकार ने आय निश्चित की है, उसके बाद बहुतो गरीब, अमीरों की श्रेणी में गया है। यह भी कम उपलब्धि की बात नहीं है कि रातों-रात व एक ही निर्णय से, देश से गरीबी कम हो गई और गरीबों को काफी हद तक अस्तित्व मिट गया।
भ्रष्टाचार और गरीबी में अब तो छत्तीस का आंकड़ा हो गया है। भ्रष्टाचार कहता है, वो जो चाहेगा, करेगा, जिसको जो बिगाड़ना है, बिगाड़ ले। ज्यादा से ज्यादा ‘तिहाड़’ ही तो जाना पड़ेगा। वहां भी मजा ही मजा है। ऐश की पूरी सुविधा। बाहर इतराने को मिलता है तथा लोगों का कोपभाजन बनना पड़ता है। लोग रोज-रोज किरकिरी करते हैं। भ्रष्टाचार कहता है, अब तो पूरा मन लिया है कि गरीबी हटे चाहे मत हटे, गरीबों का भला हो या न हो, इससे उसे कोई मतलब नहीं। बस, सफेदपोशों की तिजारियां भरनी है और अंदर जाने वालों का पूरा साथ देना है। उसके कुछ साथी, जरूर तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे हैं, इससे उसका शुरूरी मन टूटने वाला नहीं है। वह इतराते हुए कहता है कि उसकी करामात का रहस्य की परत पूरी तरह खुलना बाकी है। जो कुछ दिख रहा है, वह कुछ भी नहीं है, केवल आंखों का ओझलपन है। जिस दिन वह खुलासा कर देगा, उस दिन देश में भूचाल आ जाएगा। भ्रष्टाचार दंभ भरता है, उसी के कारण महंगाई इतरा रही है और गरीबी से इसीलिए उसका बैर भी है।
वैसे भी गरीबी तथा गरीबों ने अब तक किसी का कुछ बिगाड़ पाया है। इस तरह मेरा कौन सा बिगड़ जाएगा। गरीबों को झटके खाने का शौक है, वह उसी में खुश रहता है। जब मैंने थोड़ा झटका दिया है, इससे न तो गरीबी को बुरा लगना चाहिए और न ही गरीबों को। गरीबों को जोर का झटका भी धीरे से लगता है, तभी तो बिना ‘उफ’ किए सब सहन कर जाते हैं।

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

‘मौन-मोहन’ से मिन्नतें

हेमौन-मोहन’, आपको सादर नमस्कार। आप इतने निराश मन से क्यों अपना राजनीतिक चक्र घुमा रहे हैं। जिस ताजगी के साथ आपने देश में नई बुलंदी को छू लिए और लोगों के दिल में समाए, आखिर अब ऐसा क्या हो गया, जो आप एकदम से थके-थके से नजर रहे हैं। जिस जनता-जनार्दन के सिर पर अपनाहाथहोने की दुहाई देकर आप सत्ता तक पहुंचे, उसी हाथ की आज क्यों जनता से दूरी बढ़ गई है।आम आदमी के साथका जो नारा था, वो तो शुरू से ही साथ छोड़ गया है। निश्चित ही आपकी छवि, दबे-कुचले जनता के बीच अच्छी है, लेकिन आपके द्वारा उन्हीं लोगों की चिंता नहीं किए जाने से, वे पूरी तरह नाखुश हैं।
आपका नेतृत्व पाकर देश की करोड़ों भूखे-नंगे गरीब बहुत आनंदित थे, चलो कोई तो बेदाग छवि का व्यक्ति उनके खेवनहार बना। जब आप पहली बार सरकार में बैठे, उसके बाद कई नीतियां बनीं, जो हम जैसे गरीबों तथा अंतिम छोर के लोगों के लिए कारगर रहीं। ऐसी क्या बात हो गई, जो दूसरी बार के नेतृत्व में पूरी तरह फेल होते जा रहे हैं। आपकी आदत तो जीतने की है, आपने देश की आर्थिक दशा बदलने में अहम योगदान दिया, किन्तु अब महंगाई पर लगाम लगाने की मंशा पर, आपकी क्यों एक नहीं चल रही है ? महंगाई से देश की करोड़ों गरीब कितना त्रस्त हैं, उसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं है ? महज चंद रूपयों के सहारे अपना और अपने परिवार का पेट पालने वाले गरीबों के चेहरे का दर्द आपको क्यों दिखाई नहीं देता ? आप हर बार क्यों ‘मौन’ हो जाते हैं ? जनता आपकी ओर टकटकी लगाए बैठी रहती है, यही तो हमारा सरकारी विधाता हैं। ये जो कहेंगे, उसके बाद से उनका भला होगा। आप तो कुछ बोलते ही नहीं, बस हमारे सिर दर्द बढ़ा दिए हैं, हर पल महंगाई को न्यौता दिए बैठे रहते हैं। आपके सहयोगी भी आपको बरगला देते हैं, आपका पूरे देश पर शासन है, लेकिन ऐसा क्या हो जाता है, जो आपकी, अपने सहयोगी के सामने घिग्घी बंध जाती है।
आपके मौन रहने को लेकर आपके विरोधी आप पर कटाक्ष करते रहते हैं। पता है, हमें कितना बुरा लगता है। आप क्यों, बार-बार दस जनपथ की ओर ताकते रहते हैं। हमने देखा है कि कुर्सी मिलने के बाद भी बड़ा से बड़ा गधा भी होशियार ‘सियार’ की तरह कार्य करता है और सत्ता के रसूख पाकर वह जैसे-तैसे निर्णय खुद ही लेता है, ये अलग बात है कि वह उस निर्णय से कितना सफल होता है ? आप मौन साधे जरूर रहते हैं, हमें मालूम है कि आपके अर्थशास्त्री दिगाम के आगे अच्छे-अच्छे नहीं ठहर सकते, फिर भी आप अपने पर विश्वास नहीं करते और दूसरा कोई, आपको गलत सलाह देकर अविश्वसनीय बना देता है। जिस दस जनपथ के रहमो-करम से आपको पदवी मिली है, है, आपका नैतिक धर्म बनता है कि आप उन्हें विश्वास में लेकर काम करें, किन्तु देश की करोड़ों जनता को भी आप पर विश्वास है कि आप उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे ? पर आप हैं, कुछ समझते ही नहीं।
अब देखिए न, आपको सात साल से अधिक हो गए, हमारे बीच अठखेलियां करते। फिर भी हमारे लिए अनजान बने हुए हैं। हम जैसे गरीब लोगों को आप पर कितना भरोसा है कि गरीबों के आप तारणहार साबित होंगे। आप तो उल्टे ही पड़ गए और आप तो हमें महंगाई के भवसागर में डूबोने तुले हुए हैं। महंगाई से रोज-रोज मार खा-खाकर हमारा दम घुटने लगा है। कभी भी महंगाई से हमारी जान जा सकती है। वैसे भी हम जैसे लाखों लोग कई बार भूखे पेट सोते हैं, फिर भी गरीबी के मापदण्ड को आप बढ़ाए जा रहे हैं। पहले जितना मिलता था, उससे ही गुजारा मुश्किल था। उसके बाद भी आपको रहम नहीं आया और आपने एक बार फिर साबित कर दिया कि गरीबी, बड़ी कमीनी चीज होती है। हमारे भाग्य में गरीबी में पैदा होना और गरीबी में मरना लिखा है, इस बात का हमें अफसोस नहीं है, मगर अफसोस इस बात का है कि आप क्यों ‘मौन-मोहन’ बने हुए हैं। आखिर आप कब तोड़ने वाले हैं, अपना ‘मौन रहने का उपवास’, ‘मौन-मोहन’ से हमारी सबसे बड़ी मिन्नतें यही है। जिस दिन आप मौन रहना छोड़ देंगे, उस दिन हमारे दिल को बड़ी तसल्ली मिलेगी।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

महंगाई ‘डायन’ है कि सरकार

महंगाई पर हम बेकार की तोहमत लगाते रहते हैं। अभी जब बाजार में सामग्रियां सातवें आसमान में महंगाई की मार के कारण उछलने लगी, उसके बाद महंगाई एक बार फिर हमेंडायनलगने लगी। इस बार तंग आकर महंगाई ने भी अपनी भृकुटी तान दी और कहा कि उसने कौन सी गलती कर दी, जिसके बाद उसे ऐसी जलालत बार-बार झेलनी पड़ती है। महंगाई को बार-बार की बेइज्जती बर्दास्त नहीं हो रही है। उसने सोचा, अब वह कहीं और जाकर अपनी बसेरा तय करेगी, मगर सरकार मानें, तब ना।
सरकार ने जैसे दंभ भर लिया हो कि जो भी हो जाए, महंगाई को साथ रखना ही है। ये अलग बात है कि सरकार की अपने एकला चलो की नीति से जनता, जितने भी अपना सिर खुजाए। महंगाई चाहे जितनी एड़ियां रगड़े, लेकिन सरकार चाहती है कि महंगाई, उससे हर हाल में जुड़ी रहे। सरकार की कार्यप्रणाली से लगता है कि जैसे महंगाई से उसकी चोली-दामन का साथ है, तभी तो साथ छोड़े से भी नहीं छूट रहा है। इस बात से जनता का मानसिक पारा उतरने का नाम नहीं ले रहा है, किन्तु सरकार कुछ समझती है। कहां जबर्दस्ती में अपनी फजीहत कराने तुली हुई है और जनता का कबाड़ा।
जनता बेचारी चारों ओर से त्रस्त है। कभी महंगाई आकर उसके जीवन में आग लगा देती है और कभी भ्रष्टाचार का दानव, मन की शांति छीन लेता है। जनता, महंगाई को ताने मारती है और भ्रष्टाचार को भी आह देती है। वैसे ये तो हमारी पुरानी आदत है कि हम बीमारी की जड़ के बारे में नहीं सोचते। महंगाई और भ्रष्टाचार को आखिर हमें कौन परोस रहा है ? जीवन के अंधकार खत्म होने की हम सोचते हैं, मगर बीमारी की जकड़न के बारे में नहीं सोचते। जो दोषी नहीं है, उसे ही हम पहले खत्म करने की कतार में खड़ी करते हैं। जो दिखता है, उसी पर विश्वास करते हैं, मगर जिसके द्वारा पूरा करतब दिखाया जाता है, उसकी करतूत पर गौर नहीं करते। महंगाई का भी कुछ ऐसा ही हाल है, वह शतरंज की चाल में फंसी है और हर चाल तो सरकार ही चल रही है। जनता भी दो पाटों के बीच पीस रही है और अपने सब्र के थाह पर पूरा भरोसा कर रही है।
हम लोग सुबह उठते ही महंगाई को कोसते हैं, भ्रष्टाचार को दो-चार गिनाते हैं। बाजार जाते ही आग उगलती चीजों के ताप से सन्ना जाते हैं। यह कभी नहीं सोचते कि इस संताप की खिलाफत कैसे करें ? जिसने ऐसे हालात बनाएं, उसे सबक सीखाएं। हमारी चुप रहने की पुरानी आदत है, उसी पर कायम रहते हैं। हालांकि, यह अच्छी बात है, क्योंकि कहीं ज्यादा मुंह खोला तो... हममें डर बना रहता है कि कहीं मुंह की खानी न पड़ जाए। एक बात है, ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब हम महंगाई से दो-दो हाथ नहीं करते और मुंह की भी नहीं खाते। बावजूद, हम चेतते कहां हैं ? महंगाई, हिलोर मारती हुई आती है, अंगड़ाई करती है और हम आहें भरते रह जाते हैं। भ्रष्टाचार मस्तमौला होकर आता है और पुरानी बोतल में फिर समा जाता है। जब कोई उसे हिलाने की कोशिश करता है, तब हमारी तंद्रा टूटती है।
मैं यही कहना चाहूंगा कि हमारी सोच कितना संकीर्ण है, हम महंगाई के विरोधी बन बैठे हैं, उसे ‘डायन’ बना बैठे हैं। यह कहां का भलमनसाहत है कि ‘करे कोई और भरे कोई’। इन्हीं कारणों से महंगाई भी अपनी हिकारत पर आंसू बहाती रहती है। ये अलग बात है कि उसके नाम से देश की करोड़ों आंखें खून के आंसू भी रोती हैं। ये आंसू न सरकार को दिखाई देती है और न ही, हमारे कर्णधारों को। ऐसी स्थिति में महंगाई बेचारी क्या कर सकती है। जैसे बरसों से जनता बेचारी बनी बैठी है, वैसे ही सरकार के तरकस में फंसी, महंगाई भी ‘डायन’ बन गई है। पूरे हालात पर गौर फरमाने के बाद हमें ही तय करना है कि आखिर, महंगाई ‘डायन’ है कि सरकार ?

बुधवार, 31 अगस्त 2011

उपाधि मिलने की वाहवाही

उपाधिदेने की परिपाटी बरसों से है। बदलते समय के साथ यह परिपाटी अब पूरे रंग में है। पहले आप कुछ नहीं होते हैं। उपाधि मिलते ही आप रातों-रात उपलब्धि की सभी उंचाई पार लगा लेते हैं। हर तरफ बस वाहवाही रहती है। जब हर कहीं सम्मान मिले और नाम के आगे चार चांद लग जाए। ऐसी स्थिति में कौन नहीं चाहेगा, किसी उपाधि से सुशोभित होना। उपाधि पाने का कीड़ा जब काटता है, उसके बाद उपाधि छिनने की करामात भी करनी पड़ती है। माथे पर उपाधि की मुहर लगते ही एक अलग पहचान बनती है। आने वाली पीढ़ी भी उपाधि के सहारे ही जानती हैं कि वे कितने गहरे पानी में हैं और इससे उबरने, ऐसी शख्सियत बनने जोड़-तोड़ के साथ हाथ-पैर भी मारना पड़ता है।
खुद को उपाधि से सुशोभित करने की ललक न जाने कब से मन में समाया हुआ है। जब किसी को उपाधि लेते देखता व सुनता हूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है, शरीर में जलन, इस कदर बढ़ जाती है कि उस उपाधि को छिनने का मन करता है, क्योंकि यही खेल तो चल रहा है। कारण भी है, मुझमें क्या कमी है, जो उपाधि नहीं मिल सकती। इतना तो जानता हूं कि उपाधि मिलने के बाद मेरा कद जरूर बढ़ जाएगा।
वैसे मैं इतना जानता हूं कि किसी भी तरह से मेरा कद उंचा नहीं है। न शरीर से और न धन से, बस थोड़ी बहुत लिख-पढ़कर कद उंचा करने की कोशिशें जारी हैं। मकसद, एक ही है, ‘उपाधि’ मिल जाए। उपाधि भी ऐसी हो, जिसके बाद अपना अनजाना चेहरा किसी पहचान का मोहताज न हो। जिस जगह से गुजरो, वहां चार लोग जान-पहचान के मिल जाए। वहां खुद को मिली महान उपाधि की वाहवाही किए बगैर कोई न रह सके। तब देखो, कैसे सीना चौड़ा हो जाएगा।
ये तो मैं देखते रहता हूं कि कैसे उपाधि रेवड़ी की तरह बंट रही है। कुछ दिनों पहले भी ऐसी ही खबरें आईं, इसके बाद मेरा मन एक बार फिर चहक उठा। बरसों से मन में दबी उपाधि पाने की चाहत, फिर जाग गई। अब चिंता सताने लगी कि इस बेचैन मन को कैसे मनाउं ? मेरा मन रह-रहकर उपाधि के सपने देखते रहता है। आखिर वो पल कब आएगा, जब मेरा मन शांत होगा और मुझ जैसे अभागे को कोई उपाधि मिलेगी ?
मैं सोचता हूं कि उपाधि पाने की कतार में न जाने कब से लगा हूं, मेरा नंबर क्यों नहीं आता। जरूर कुछ न कुछ गड़बड़झाला है, नहीं तो कैसे मैं इस उपलब्धि से महरूम रहता ? ये तो निश्चित ही किसी की साजिश होगी, क्योंकि बिना किसी के टांग खींचे, ऐसा संभव नहीं है। नेता तो बात-बात में साजिश की दुहाई देते हैं, मैं किस बात की दुहाई दूं। मुझे तो कारण ही समझ नहीं आ रहा है। बस, मैं खुद को हर कोण से उपाधि पाने के काबिल मानता हूं। ये अलग बात है कि देने वाले मुझे काबिल नहीं मानते।
मेरे मन में इस बात पर कोफ्त होती है कि चलो, मैं तो काबिल नहीं हूं, मगर जिन्हें मिलता है, वे कितने काबिल होते हैं। बस, उपाधि, पद के पीछे भागती है और देने वाले उपलब्धि के पीछे। अपने पास कोई उपलब्धि नहीं है। जो है, उसे कोई मानने को तैयार नहीं है। अब इसमें मेरा क्या दोष है। मैं तो मानता हूं, मुझमें हर खूबी है और उपाधि का हकदार भी हूं।
मुझे हर तरह से वाहवाही लेनी है। मुझमें बुखार चढ़ा है कि कैसे भी करके एक उपाधि हासिल करनी ही है। जैसे अन्य लोग उपाधि पा लेते हैं, मुझे भी किसी भी तरह से उपाधि लेनी ही है। हालांकि, मुझे शार्टकट का रास्ता नहीं आता। यदि कोई रास्ता हो और उपाधि दिलाने कोई मदद कर सके तो उनका आभारी रहूंगा। इसके बाद फिर क्या है, मैं वाहवाही के सागर में डूबकी लगाता रहूंगा।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

लगा भी दो अब शतक

हमारा देश अनंत विविधताओं से ओत-प्रोत है। 33 करोड़ देवी-देवताओं से हममें से हर कोई कुछ कुछ मांगते रहता है। भगवान भी देर से ही सही, अपनी आराधना करने वालों की सुध लेते ही हैं। तभी तो मंदिरोें में मत्था टेकने वालों में भगदड़ मचती रहती है। भगवान हममें से कइयों को छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ को छप्पर भी नसीब नहीं होता। कोई दो वक्त की रोटी को ईश्वर की असीम देन कहता है तो एक दूसरा, उसकी अहमियत को नहीं समझता, फिर भी भगवान उस पर मेहरबान हुए रहते हैं।
हम भगवान से मांगते रहते हैं, वैसे ही क्रिकेट के भगवान से भी हम जैसे अनगिनत रहनुमाई एक ‘शतक’ बीते कुछ महीनों से मांग रहे हैं, मगर उनका बल्ला ‘शतक का आशीर्वाद’ नहीं दे रहा है। हमें बेसब्री से इंतजार है कि क्रिकेट के भगवान ‘शतकों का शहंशाह’ बनें और शतकों का शतक लगाए। न जाने कब से अंखियां बिछाए बैठे हैं कि वे कीर्तिमान बनाकर हम जैसों को धन्य करें। क्रिकेट की खुमारी न जाने कहां-कहां छाई है, इसीलिए खाने-पीने की फुर्सत भी नहीं रहती। क्रिकेट को जिंदगी समझने वालों के दिमाग में भी उछल-कूद मची है, फिर भी क्रिकेट के भगवान अपने में ही मग्न हैं। करोड़ों क्रिकेटप्रेमी अपने मसीहा से मांग-मांग कर थक जा रहे हैं, हे क्रिकेट के देवता एक शतक तो लगा दो। आपने हमारी कई मुरादें पूरी की हैं, इस सीढ़ी को चढ़ने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
हर समय टीवी से चिपके रहते हैं, मन में केवल एक ही बात रहती है कि क्रिकेट के भगवान, कहां, किस समय, किस गेंद पर अपन शतक लगा दें। कहीं उस पल को देखने हम चूक न जाएं, यही कारण है कि एक मैच देखने में हाथ से जाने देना नहीं चाहते, भले ही हमारे खिलाड़ी कागजी शेर निकल जाए। हम पूरी सीरीज गंवा दें, बस मन में एक ही बात समाई बैठी है कि क्रिकेट के भगवान ने हमें इतने शतक दिए हैं, अब और एक शतक दे दें। इससे हमारी सबसे बड़ी मुराद पूरी हो जाएगी।
क्रिकेट के भगवान पर वैसे ही हर किसी की निगाह टिकी है, कोई उन्हें ‘भारत रत्न’ देने का हिमायती बन बैठा है तो किसी को उनके एक ‘ अनमोल शतक’ का इंतजार है। कइयों को लग रहा है कि इसके बाद उनका ‘भारत रत्न’ बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह स्वाभाविक भी है, देश को गौरव के सोपान में सातवें आसमान पर पहुंचाने वही एक ही तो हैं, बाकी तो बस ऐसे ही हैं। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, इस लिहाज से मेजर ध्यानचंद को ‘भारत रत्न’ दिए जाने की गुजारिश भी की जा रही है। देशी की बात हम करते हैं, किन्तु हर कहीं हममें पाश्चात्य हावी है। क्रिकेट में जब ऐसा हो रहा है तो हमें मुंह नहीं खोलना चाहिए। जैसे हमने पहले भी अपनी जुबान बंद कर रखी है, वैसे ही आगे भी बने रहना चाहिए। इसके एवज में हमें कुछ बलिदान करना पड़े, यह कोई मायने नहीं रखता। बस, मायने एक ही है, क्रिकेट के भगवान को ‘भारत रत्न’ मिले।
कई कहते हैं कि सचिन देश के लिए नहीं खेलते, पैसे के लिए खेलते हैं, मगर मैं नहीं मानता, क्योंकि अपने लिए नहीं खेलते तो क्या इतने रिकार्ड बना पाते और हमारे कलयुगी भगवान बन पाते। देखिए, पद तथा पैसा का चोली-दामन का साथ रहता है, इसमें हमें एतराज नहीं करना चाहिए। एक तो हम उनसे पिछले बीस बरसों से मांगते चले आ रहे हैं और वे दोनों हाथों से बल्ला थामे लुटाए जा रहे हैं, शतकों पर शतक। फिर भी हमारी भूख खत्म ही नहीं हो रही है। यह निश्चित ही गलत बात है, जब हमें कोई देने पर आ जाए तो उसके बाद उनसे इतनी अधिक अपेक्षा पाल के नहीं रखनी चाहिए। अब देखिए न, अपेक्षा रखते-रखते शतक का पंथ निहार रहे हैं, किन्तु वे हैं कि शतक का रास्ता तैयार कर ही नहीं रहे हैं। ऐसा ही रहा तो किसी दिन आंखें ही न पथरा जाए।
काफी अरसे से मन कचोट रहा है कि हम भगवान से मांगते हैं, उसकी पूरी होने की उम्मीद रखते हैं और वह समय आने पर पूरी भी होती है। ऐसे में हमें मन को मारना नहीं चाहिए, आज नहीं तो कल, क्रिकेट के भगवान हमें ‘शतकों का प्रसाद’ जरूर देंगे। कहा भी गया है कि इंतजार का फल मीठा होता है। अब देखते हैं, हमारे ये भगवान हमारी सुनते हैं कि नहीं। काफी दिनों से बस निराश ही कर रहे हैं। सुन भी लो, क्रिकेट के भगवान और अब लगा भी दो, शतकों का शतक।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

देश को समर्पित कर दें ‘भ्रष्टाचार’

भ्रष्टाचार का जिन्न एक बार फिर बाहर गया है और इस बार वह सब पर भारी नजर रहा है। सत्ता के रसूख का दंभ भरने वाली सरकार भी डरी-सहमी हैं। आधुनिक भारत केगांधीके नए अवतरण के बादभ्रष्टाचार का भूतको देश से भगाने के लिएअनशन यज्ञका सहारा लिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह नए भारत कीअगस्त क्रांतिहै। हालात ऐसे बन गए हैं, जो भी भ्रष्टाचार की खिलाफत में मुंह मोड़ेगा, वह क्रांति की चपेट में जाएगा और देश में इस क्रांति से हजारों-हजार बावले नजर रहे हैं, ‘हजारेके साथ। भले ही कई बरसों से महंगाईडायनबनी बैठी है, लेकिन भ्रष्टाचार भी कुछ कम गुल नहीं खिला रहा है, वह भीभूतबन गया है और हर किसी के सिर पर सवार हो गया है।
भ्रष्टाचार का भूत ने देश की जनता के दिलो-दिमाग को झकझोरा ही है, साथ ही सरकार की भी चूलें हिला कर रख दी हैं। भ्रष्टाचार ही है, जिसने कईयों के मुंह बंद करा दिए हैं। भ्रष्टाचार के भूत पर लगाम लगाने सरकार बेबस हो गई है। मैं यही कहूंगा, अभी स्थिति ऐसी हो गई कि भ्रष्टाचार को देश को समर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि अवाम ने उसे अपनाया हुआ है, बरसों-बरस से। आने वाले दिनों में भी भ्रष्टाचार, जलवा बिखरेता रहेगा, इसमें किसी का क्या जाता है। जैसा चल रहा है, चलने दो ? सरकार भी यही चाहती है। सत्ता के मद में चूर सरकार के संग-संग चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ करोड़ों ने हाथों ने ‘अनशन यज्ञ’ में आहुति दे दी है। हजारों-हजार हाथ जैसा चाह रहे हैं, वैसा नहीं हो रहा है, उल्टे भ्रष्टाचार का दिनों-दिन नाम रौशन होता जा रहा है। भ्रष्टाचार का मौज देखिए, विदेशों में भी अपनी शानो-शौकत दिखा रहा है। उसे काले-धन का ‘तमगा’ मिल गया है। जितना चाहे ऐड़ियां रगड़ लो, फिर भी भ्रष्टाचार के सामने बौने ही रहोगे।
आज हर जुबान पर भ्रष्टाचार ही छाया हुआ है। हो भी क्यों न, इतनी हाय-तौबा कब मची है ? भ्रष्टाचार, स्वाभाविक तौर पर इतराएगा ही कि अकेले, उसने देश की जनता को भी जगा दिया और सरकार को भी डरा गया। तभी तो देश से भ्रष्टाचार का भूत भगाने के लिए हर घर से ‘नए भारत का गांधी’ निकल रहा है। ऐसा लग रहा है, जैसे भ्रष्टाचार अब देश से मिटकर रहेगा, मगर हमने उसे इतना अपना लिया है तो इतनी जल्दी भला कैसे साथ छूट सकता है ?
मैं यही कहूंगा कि आजाद भारत के बाद से ही हम भ्रष्टाचार के साथ जी रहे हैं। ये अलग बात है कि नई बोतल से पुराना जिन्न बाहर आ गया है। भ्रष्टाचार रूपी जिन्न, देश में पहले भी दिखाई देता रहा है, परंतु आज उसका रूप जनता की नजर में विकराल ले लिया है। जनता कह रही है कि अब उसकी त्रासदी सहन नहीं होती। जितना धत-करम करना था, कर लिए। अब तो हमारा पीछा छोड़ो। भ्रष्टाचार, हमारी रगों में घुस गया है, उसे बाहर निकालने के लिए निश्चित ही कोई वैक्सीन ही काम आएगी।
भ्रष्टाचार देश से चला भी गया तो हमारा इतना फर्ज तो बनता है कि चौक-चौराहों में उसकी प्रतिमा स्थापित हो जाए। गलियों का नामकरण ‘भ्रष्टाचार’ के नाम पर हो जाए। तब कहीं जाकर हमारी आने वाली पीढ़ी, भ्रष्टाचार को समझ पाएगी। इतिहास में दर्जनों वाकिये दर्ज होते हैं, लेकिन कितने ऐसे होते हैं, जो गुलिस्तां में शामिल होते हैं ? हालांकि, भ्रष्टाचार ने इतना नाम कमा लिया है और देश के हर जेहन में इस कदर समा गया है, ऐसे हालात में भ्रष्टाचार का इतना हक तो बनता है कि उसे इतनी बेदर्दी से बिदा न किया जाए।
वैसे भी बरसों का साथ, एकबारगी नहीं छोड़ना चाहिए, ऐसा हम कहते-सुनते आ रहे हैं। कई दशकों से भ्रष्टाचार भी हमारी जिंदगी का हिस्सा रहा है, इसे बेरूखी से रूखसत नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार ने अपने अधिकारों के लिए सोई जनता को जगाया है, इसके बाद उसे इतना अभयदान मिलना चाहिए और उसकी छह दशक की सेवा के लिए हमें देश को उसे समर्पित कर देना चाहिए। ये तो मैंने सूझा दिया, अब अंतिम निर्णय तो जनता-जनार्दन, अन्ना टीम और सरकार को ही लेना है। देखते हैं, आगे होता है, क्या ?

बुधवार, 3 अगस्त 2011

अनजाने चेहरों की दोस्ती

यह बात अधिकतर कही जाती है कि एक सच्चा दोस्त, सैकड़ों-हजारों राह चलते दोस्तों के बराबर होता है। यह उक्ति, जाने कितने बरसों से हम सब के दिलो-दिमाग में छाई हुई है। दोस्ती की मिसाल के कई किस्से वैसे प्रचलित हैं, चाहे वह फिल्मशोलेके जय-वीरू हों या फिर धरम-वीर। साथ ही भगवान कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की प्रगाढ़ता जग जाहिर है। ऐसी दोस्ती की कहानियां धर्म ग्रंथों में कई मिल जाएंगी। यह भी कहा जाता है कि कलयुग में जितना हो जाए, बहुत कम है। कुछ भी हो जाए तो बसकलयुगीउदाहरण दिया जाता है। कलयुग में बहुत कुछ हुआ है, जो कभी सुनने में नहीं आया है। रिश्तों को कलंकित करना, जैसे कलयुग के हिस्से में ही है, कभी कोई कलयुगी बेटा हो जाता है तो कोई कलयुगी बाप बन जाता है। यह पदवी उन्हें ऐसे ही नहीं मिलता, इसके एवज में वे घृणित कार्य को शिरोधार्य करते हैं। कलयुग की पटकथा पर कई फिल्में बनाई गई हैं, अब तोकलयुगी तकनीकी दोस्तीपर भी कोई फिल्म बनाया जाना चाहिए। कुछ नहीं तो एकाध पुस्तक लिखी जानी चाहिए, जिसका विमोचन भी फेसबुकिया दोस्ती के पैरोकार करे तो ज्यादा बेहतर रहेगा।
तकनीकी प्रणाली में कलयुग की एक नई दोस्ती की कहानी गढ़ी जा रही है, वो है, अनजाने चेहरों से दोस्ती। एक दशक पहले एक फिल्म आई थी, ‘सिर्फ तुम’। इस फिल्म में जिस तरह बिना चेहरा देखे ‘प्यार’ हो जाता है और शादी की चाहत जाग जाती है, कुछ वैसा ही हाल ‘अनूठी दोस्ती की कहानी’ की है। दरअसल, आज दोस्तों की संख्या बढ़ाने की अजीब जद्दोजहद चल रही है, जिसमें कोई पीछे नहीं रहना चाहता, भले ही वे उस दोस्त के चेहरे से वाकिफ न हों। जो चेहरे दिख जाए, वही दोस्ती की फेहरिस्त में शामिल हो जाता है। ये अलग बात है, वह चेहरे पर चेहरा लगाया हो। इससे बात कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह गरीब है कि अमीर। ऐसा लगता है कि जैसे ‘चेहरा पहचान’ स्पर्धा की धूम मची है। जिन नाम को आपने सुना तक नहीं है, उनका यहां चेहरा का आभामंडल सहज देखा जा सकता है।
दोस्ती का कीड़ा ने भी मुझे भी काटा है, लिहाजा मैं भी ‘फेसबुकिया बीमारी’ की चपेट में हूं और देश भर में दोस्त बनाने में जुटा हूं। मैं कईयों को नहीं जानता, कभी नाम तक नहीं सुना। मगर धन्य है, हमारी फेसबुकिया पद्धति। जिसके आने के बाद सब आसान हो गया है, मिनटों-मिनटों में दोस्त टपक आते हैं, बटन दबाए नहीं, सामने नजर आ जाते हैं। चेहरा दिखते ही बस यही आवाज सुनाई देती है, मुझे भी अपनी ‘दोस्ती की किताब’ में शामिल कर लो। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम एक हैं, दोस्ती की कहानी भी कुछ वैसी है, क्योंकि जिस तरह देश में कहीं भी रहने व जाने का अधिकार है, दोस्त बनाने के लिए भी कोई रोक-टोक नहीं है। हम सब जानते हैं कि आसपास में कितने दोस्त बना पाते हैं, लेकिन ‘फेसबुकिया’ तकनीक ने तो दोस्तों की भरभार कर दी है। मन में यह बात सहसा आ जाती है कि दोस्ती का समुद्र सामने खड़ा है, जहां से जितना दोस्त चाहो, ले सकते हो। जैसे हम समुद्र के पानी को जितना भी लें, खत्म नहीं होता, वैसा ही दोस्त बनाने की कतार कहीं कटती नहीं। कोई न कोई कतार में दिखाई देता ही रहता है। दोस्तों की फेहरिस्त इतनी अधिक रहती है कि चेहरा तो दूर, नाम तक याद नहीं रहता, हैं न लाजवाब दोस्ती। दोस्ती की ऐसी मिसालें देखने को नहीं मिलेंगी, आपको ही पता नहीं कि आपके दोस्त कहां के हैं और करते क्या हैं ?
इस दोस्ती की कहानी यहीं नहीं रूकती, जैसे हर कहीं दोस्तों में गु्रपबाजी होती है, वैसे हालात यहां भी हैं। गुटबाजी किए व उसके हिस्से में आए बिना हमें लगता है, जैसे कुछ हासिल ही नहीं हुआ। पहले हमें विदेशी कंपनी ने कई तराजू में तौला और बांटा, अब फेसबुकिया बीमारी की बदौलत हम ‘ग्रुप की लड़ाई’ में शामिल हो रहे हैं। जहां देखो हर किसी का अपना ग्रुप है। अब समझ में नहीं आता कि किसके ग्रुप में रहें। कई तो ग्रुप बिना ही रहना चाहते हैं, लेकिन वे मानें, तब ना। जो अनजाने चेहरों से दोस्ती में माहिर हैं। चिकने चेहरे देखकर तो लार लपकाने वालों की कमी नहीं है और कई अपना शगल ही बना लिए हैं, चेहरे पर चेहरा लगाना। अब इसमें कोई क्या कर सकता है, जो अपना चेहरा ही दुनिया को दिखाना नहीं चाहता।
अब ऐसे में कौन बताए कि सच्चा कौन है और झूठा कौन ?, क्योंकि दोस्ती का पैमाना तो सच्चाई व ईमानदारी है, मगर ये तो खुले बाजार में मिलती नहीं, जो ‘फेसबुकिया बीमारी’ लगने के बाद आसानी से मिल जाती है। आज तो इस बीमारी की खुमारी छाई है, अनजाने चेहरों की दोस्ती की ललक हर कहीं नजर आ रही है। दम मार-मार कर बस यही कोशिशें जारी हैं कि कैसे भी हो, खुद को अनजाने चेहरों तक पहुंचाना ही है, भले ही वे याद रखें या न रखें।
मैं भी इस फेहरिस्त में शामिल हूं, क्योंकि अपना चेहरा तो कोई पहचानता नहीं, कोई देख ले तो फिर सिर फिरा ले। इसलिए यह शार्टकट राह मैंने भी चुन ली। ये तो सभी जानते हैं कि शार्टकट से कोई सफल नहीं होता। लिहाजा देखते हैं, ये दोस्ती कब तक चलेगी, हालांकि मैं तो यही कहूंगा, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...