शनिवार, 18 दिसंबर 2010

विकीलिक्स ये भी बताएं

अमेरिकी वेबसाइट विकीलिक्स के क्या कहने, वह सब कुछ जानती है। किसने, किसके बारे में क्या कहा, उसे सब कुछ पता है। दुनिया में आज हर किसी की नजर जूलियन असांज की वेबसाइट पर टिक गई हैं, क्योंकि वह एक के बाद एक खुलासे करती जा रही है। बीते कुछ दिनों से ऐसा कुछ माहौल बन गया है कि जैसे कोई कुछ बता सकता है तो वह है, विकीलिक्स। यही कारण है कि मेरा भी ध्यान विकीलिक्स पर है कि अब वे क्या खुलासा करने वाली है ? वैसे विकीलिक्स, जो भी भीतर की बात बता रही है, उससे इन दिनों बड़े चेहरे माने जाने वाले कइयों की पाचन क्रिया ही गड़बड़ा गई है और उनकी सेहत पर भी असर पड़ने लगा है। दबंग चेहरों से भी हवाईयां उड़ने लगी हैं कि उनका भी कुछ खुलासा विकीलिक्स न कर दें। उन्हें डर लग रहा है कि कोई ऐसी पोल न खुल जाए, जिससे वे एक पल में सौ से शून्य में पहुंच जाएं।
देखा जाए तो विकीलिक्स ने जो कारनामा कर दिखाया है, वह अब तक किसी के नहीं किया। हमारे देश में भ्रष्टाचार, घोटाले समेत तमाम कार्य पूरी ईमानदारी से किए जाते हैं, मगर कोई खुलासा थोड़ी ना कर सकता है ? एक बात है कि जनता विकीलिक्स के खुलासे देख रही है कि कैसे, किसने, क्यों व क्या गुल खिलाया है ? मैं तो विकीलिक्स के रोज-रोज खुलासे से दंग रह गया हूं कि किस खातिर, क्यों तथा किस तरह, किससे, कैसी-कैसी बातें होती हैं ? किसे परवाह है कि क्या कुछ कहने से देश का बेड़ा का गर्क हो जाएगा और खुद के चेहरे पर कालिख पुत जाएगी ? विकीलिक्स के परदे उठाने के कारण देश का राजनीतिक पारा तो चढ़ गया है और नहीं लगता कि अभी इसका तापमान कम होगा। मैं तो यह भी सोच रहा हूं कि एक विकीलिक्स से इतना कुछ भीतर से बाहर आया है, यदि एक-दो और हो जाए तो फिर तो क्या कहने ? विकीलिक्स की सूची में अब बड़े नाम भी आ गए हैं, इसी के चलते कई चेहरों की रंगत भी उतरी हुई है कि कहीं विकीलिक्स की टेढ़ी नजर उन पर न पड़ जाए। विकीलिक्स ने जिस तरह तूफान की भांति आकर दुनिया को बिदबिदाने का काम किया है और फिलहाल कई दिनों से वह पूरी रंग में दिख रही है, इस हालात में मीडिया को भी बैठे-ठाल्हे कई दिनों का खुराक नसीब हो गया है। आज हर किसी की जुबान पर एक ही नाम है, वह विकीलिक्स। हो भी क्यों न, काम ही वैसा किया है, सूचना पहुंचाने का बड़ा जरिया जो साबित हुआ है। देश का सूचना तंत्र भले ही कमजोर हो, लेकिन पड़ोसी की मेहरबानी से जुगाड़ में घर बैठे जैसे-तैसे कुछ सूचना तो मिल जा रही है, ना।
अब तो मैं यहां तक सोचने लगा हूं कि क्यों न इसी तरह और विकीलिक्स तैयार किए जाएं, जिससे कुछ तो पता चलें, नहीं तो हम जैसे अदने से व्यक्ति के पास इतनी भारी-भरकम जानकारी भला कहां से आएगी। शुक्र है, इस विकीलिक्स का, जिसने कुछ दिनों का ठेका जो ले लिया है। मैं तो जूलियन असांज से यही पूछना चाह रहा हूं कि ऐसी विकीलिक्स और है कहां ?

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

मालदार गरीब का मुखौटा

कई दिनों तक सोचने के बाद मेरे जेहन में ऐसा कोई विचार नहीं आ रहा था, जिसे मैं लिख सकता। पर अचानक ही सूझा कि देश में बढ़ती गरीबी पर लिखूं। सहसा ही ध्यान आया कि अब तो केवल मालदार गरीबों का ही बोलबाला है। ऐसे मालदार गरीबों से मेरा रोज ही पाला पड़ता है। जब मैं किसी गली से गुजरता हूं तो उनसे मेरा नमस्कार होता है, जिनके पास बंगला, कार समेत सभी एशोआराम के साजो-सामान हैं। एक दिन मेरे पड़ोसी ने मुझे गरीब बनने की नसीहत दे डाली और वो सारे फण्डे बता डाले, जिससे मालदार होते हुए गरीबी का चोला ओढ़ा जा सके। मैंने भी उसकी नसीहत को सर आंखों पर लेते हुए ऐसा गरीब बनने की ठान ली। पहले उन्हें देखकर मुझे थोड़ी सी जलन होती थी कि उनके पास मुझसे ज्यादा संसाधन है, फिर भी वे गरीब होने का सर्टिफिकेट लिए बैठे हैं। पर उनकी नसीहत के बाद मेरी जलन कुछ कम हुई और कुछ दिनों में ही मैंने पड़ोसी के बताए अनुसार, औपचारिकता पूरी की और मेरे घर सरकार के कारिंदे गरीब होने का प्रमाण पत्र दे गए और दो मंजिला घर के गेट पर गरीबी का ठप्पा लग गया। जिस दिन मैं गरीब बना, उस दिन ऐसा लगा, जैसा यह मेरी जिंदगी की एक बड़ी उपलब्धि है। हमारे पास वैसे भगवान का दिया हुआ सब कुछ है, लेकिन सरकार की दरियादिली के चलते हमने भी गरीब बनने का मन बना लिया। माल तो हमें पुरखौती से मिला है, पर मालदार गरीब का चोला ओढ़ना, इसलिए भी जरूरी है कि जब सरकार के दिए को, लेने से कोई हिचक नहीं रहा है तो भला, मैं क्यों पीछे रहूं। इन दिनों मुझे खबरनवीसों से पता चला कि गरीबों की तादाद लगातार बढ़ रही है। वैसे भी हमारे देश में बहुमत का ही जिंदाबाद होता है तो भला मैं भी गरीब के बहुमत में हाथ बंटाने कैसे हिचकिचाता। सो, मैंने भी बहती गंगा में हाथ धोने का ही नहीं, बल्कि नहाने का ही पक्का इरादा कर लिया। सरकार ने भी इसके लिए मुझे पूरा अवसर प्रदान किया और हमारे परिवार को जैसे, संजीवनी मिल गई। अब तो रोज-रोज काम करने की झंझट कहां, महीने भर की व्यवस्था एक ही दिन में हो जाती है, वह भी बिना हाथ-पैर मारे। हम बस निठल्ले बनकर रह गए हैं। एक दिन की कमाई के बाद हफ्ते भर तक काम करने की अब कहां जरूरत। परिवार के लोग भी खुश हैं कि घर में पहले कहीं से कुछ नहीं आ रहा था, अब मुफ्त में कुछ चीजें तो मिल जा रही हैं, साथ ही रियायत भी। ऐसे में मैंने भी कई लोगों को गरीब बनने की बात कही और उन्होंने मान भी ली। आज स्थिति है कि मेरे प्रयास से आसपास के सभी परिवार के लोग गरीब बन गए हैं। इसके लिए उन्हें एक प्रमाण-पत्र भी मिला है, जिसे दिखाकर वे कई और तरीके से लाभान्वित हो सकते हैं या कहें कि हो रहे हैं। उनके पास जीने की वह चीज है, जिससे उनकी जिंदगी पूरी विलासिता में बीत सकती हैं, लेकिन वे भी भला, भीड़ में शामिल होने से कैसे परहेज करते। इस बीच मुझे यह जानकर तकलीफ हुई कि अब सरकार के फरमान के बाद मालदार गरीबों की पहचान की जा रही है, ताकि उन्हें फिर से पुराना तमगा दिया जा सके। ऐसे में लगने लगा कि अब वे गरीबों के साथ बहुत बड़ा अन्याय करने जा रही हैं। भला हम गरीब थे, तो किसका क्या बिगड़ रहा था। इस बात से मन को ठेस तो लगी, लेकिन मैं यह सोचकर खुश था कि चलो, कुछ समय तक तो गरीब होने का फायदा मिला। मुझे लगा कि अब इस गरीब के मुखौटे को साथ लेकर चलना मुश्किल है तो मैंने इस मुखौटे को उतार फेंकने में ही भलाई समझी।

रविवार, 7 नवंबर 2010

राजनीति की निराली कहानी

अभी हाल ही में मुझसे एक पुराने जान-पहचान का अरसे बाद मिला। बरसों पहले जब मैं उससे मिला करता था तो उसके पास खाने के लाले पड़े थे। वह कुछ एक आपराधिक कार्यों में भी लिप्त था। कई बार जेेेल की हवा भी खा चुका था। कल तक जो पूरे मोहल्ले को फूटी आंख नहीं सुहाता था, आज वही लोगों की आंख का तारा बना हुआ है। जब वह मुझे मिला तो मैंने उससे कुषलक्षेम पूछा। उसने बताया कि वह इन दिनों राजनीति में खूब कमाल दिखा रहा है। मैंने कहा कि ऐसा कर लिया, जो बिना किसी योग्यता के, नाम भी कमा लिया और पोटली भी भर ली, वह भी ऐसे, जैसे अब कई पुष्तों तक कमाने की जरूरत ही नहीं। उसने मेरी बातों के पूरे हुए बगैर तपाक से बोला - भला, राजनीति में कोई योग्यता की जरूरत होती है। कुछ मत करो, बस कुछ दिनों तक बड़े नेताओं के पीछे हो लो। उसका जी हिजूरी करो, चमचागिरी और चापलूसी की सारी हदें पार कर दो। देखो कैसे, उस नेता के खासमखास बनते देर नहीं लगेगी। इसके बाद तो जैसे चांदी ही नहीं, बल्कि सोना ही सोना है। और तो और, बड़े नेता के साथ खुद की पहचान ऐसे बनाओ, जैसे कई और नेता, सामने टिक ही नहीं पाए।मैं तो उसके तोते की तरह बोल, सुनकर सोच में पड़ गया कि कल तक जिसके मुंह में लड़खड़ाहट भरी आवाज आती थी, वह आत्मविष्वास से कैसे लबरेज है, जरूर ही यह हरी पत्ती का कमाल है, क्योंकि यह जिसके पास होती है, वह कुछ ज्यादा ही आत्मविष्वासी हो जाता है। कुछ देर बाद फिर मैं सोचने लगा, मैं क्यों छोटी-मोटी नौकरी कर जबरन का माथापच्ची कर रहा हूं और ये है कि राजनीति में आते ही जैसे रातों-रात फर्स से अर्स तक की दूरी तय कर लिया, जिसकी उम्मीद षायद ही कोई और काम करके की जा सकती है। कोई बड़ा उद्योगपति भी इतने कम समय में इतना अधिक मालदार नहीं बनता, जितना राजनीति की परछाई पड़ते ही। राजनीति की गहरी गंगा में डूबकी लगाते ही जैसे नोटों की बरसात होने लगती है, बस मार्केट में थोड़ा नाम होना चाहिए। मैं सोचने लगा कि कल तक जिन हाथों में खोटा सिक्का तक नहीं होता था, आज वहां करारे नोट भरे पड़े हैं।उस मेरे परिचित ने राजनीति के बारे में और गूढ़ बातें बताया। वैसे तो किसी नौकरी में कोई व्यक्ति तय उम्र के बाद रिटायर हो जाता है, लेकिन राजनीति ही एक ऐसा आमदनी बटोरने का एकमात्र रास्ता है, जहां का दरवाजा किसी भी उम्र में भी खुला रहता है। ना किसी अनुभव की जरूरत होती है, बस एक गुण महत्वपूर्ण मानी जाती है कि राजनीति में तिकड़मबाजी आनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना कैसे कोई कुर्सी के पाये को मजबूत कर सकता है। मीठे बोल बोलने में माहिरों की तो जैसे राजनीति में किस्मत ही चमक जाती है। कोई भी स्थिति बन जाए, मगर मीठा बोलना मत छोड़ो, यही सबसे बड़ा मूलमंत्र है, राजनीति में लंबे समय तक जमे रहने के लिए। जनता भी बेचारी है, उसे कुछ नहीं चाहिए, बस चाहिए तो बस दो मीठे बोल। विकास और भ्रश्टाचार से उसे कोई लेना-देना नहीं है, चाहे कोई उसके हिस्से पर डाका डालने से परहेज न करे। राजनीति में पैर जमाने के लिए न तो पढ़ा-लिखा होना जरूरी है और न ही किसी तरह के प्रषिक्षण की। बषर्ते एक जरूरत है, तो वह हैं, किसी बड़े नेता का वंषज होना। उसने बताया कि देष की राजनीति में ऐसे ही विलक्षण प्रतिभा के लोग ही तो छाए हुए हैं, जिनके पास आजादी के पहले राजनीति करने वालांे की तरह, कोई विषेश गुण या योग्यता, भले ही ना हो, लेकिन उसके माथे पर इस बात का ठप्पा तो है कि वह किसी बड़े नेता का रहनुमाई है। इन बातों को सुनकर राजनीति की नाव में गोते लगाने के बाद मेरे माथे पर बल पड़ा, किसी ने ठीक ही कहा है कि राजनीति बड़ी कुत्ती चीज है, यही कारण है कि जनता, उस कुतिया से दूर ही रहना चाहती है, जिसकी पूंछ कभी सीधी नहीं हो सकती। मेरे उस पुराने जान-पहचान वाले ने राजनीति का इतना बखान किया तो मैंने भी सोचा कि क्यों न, राजनीति में हाथ आजमाया जाए, किन्तु मन ही मन सोचने लगा कि राजनीति में दांव तो वही लगा सकता है, जो अभिमन्यु की तरह मां के पेट से तिकड़म के सभी गुण लेकर आया हो। मुझे राजनीति की गहराई की जानकारी नहीं रही है। मैंने सोचा कि कैसे राजनीति की गहराई को नापा जाए, लेकिन यह सब मेरी बस की बात कहां थी। हमारी इतनी हिम्मत कहां कि हम किसी का चमचागिरी कर पाएं और चापलूसी कर पाएं, क्योंकि राजनीति में पैर जमाने का महत्वपूर्ण गुण तो यही है। यह कोई आसान काम नहीं है, इस काम को जो कर ले, समझो, वह दुनिया का सभी काम कर सकता है। वह पूरे मनायोग से काम करे तो आसमां से भी तारे तोड़कर ला सकता है। बाद में राजनीति की परछाई को देखकर सोचते रह गया और मैंने देखा कि वह मेरे सामने से ओझल हो गई है। मैं मुस्कुराता रह गया और फिर मेरे समझ में आ गई कि राजनीति की कहानी बड़ी निराली है।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

पहुंचे हुए बड़े खिलाड़ी

आज का दौर बड़ा कठिन हो गया है। जब भी कोई भ्रष्टाचार करना हो या फिर कोई अपराध करना हो तो पहुंचे हुए होना बहुत जरूरी है। ऐसा काम कोई विशेष व्यक्ति ही कर सकता है, ऐसे महत्वपूर्ण काम करने की हम जैसे कायरों की हिम्मत कहां। बीते कुछ समय से पहुंच की महिमा बढ़ गई है, तभी तो जब भी किसी बड़े पदों पर किसी को काबिज होना होता है तो वहां उसकी योग्यता कम काम आती है, बल्कि पहुंच का पूरा जलवा होता है। पहुंच वाले का भला कोई बाल-बांका कैसे कर सकता है। हम तो अदने से और तुच्छ प्राणी हैं, जो पहुंच जैसी बात सोचकर खुश हो जाते हैं, क्योंकि हम किसी का ना ही तबादला करवा सकते हैं और ना ही किसी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को पुलिस के डंडे से बचा सकते हैं। यह कोई मामूली काम नहीं है, हजारों में विरले ही ऐसा कर पाते हैं। इनकी मीठी बातों से कैसे कोई मर न मिटे। यह सब कोई कर सकता है तो वह है, पहुंच वाला। पहुंच वाले इन बड़े खिलाड़ियों के खेल ही निराले हैं। भले ही पहुंच वालों की जुबान, सभी चेहरों को पहचानती हो, लेकिन ऐसे पहुंच वालों के चेहरे की रंगत को कोई पहचान ले, समझो उससे महारथी कोई नहीं। दिन में कईयों को बरगलाना, जैसे उसकी फितरत में शामिल होता है और यही उनके जीने का शगल होता है। बिना तीन-पांच किए, पहुंचे हुए लोगों के पेट का खाना नहीं पचता। जब पहुंचे हुए खिलाड़ियों की बात हो रही है तो भारत में अब तक नहीं हो सके सबसे बड़े गेम्स की बात न हो, ऐसा हो नहीं सकता। देश के अलग-अलग इलाकों में देखा जाए तो पहुंचे हुए बड़े खिलाड़ियों की कमी नहीं है। वैसे भी यह संख्या दिन-दूनी, रात चैगनी की तर्ज पर बढ़ रही है। उनकी नजर में, कमी हो रही है, तो बस पूरी लगन से खेल का प्रदर्शन करने वालों की। छोटे खिलाड़ियों की छाती इतनी चैड़ी नहीं कि, वह बड़े खिलाड़ियों की तरह देश के करोड़ों लोगों से भ्रष्टाचार जैसा मसखरा कर पाएं और उसके बाद भी उस पर कोई उंगली न उठे। छोटे खिलाड़ी तो केवल मैदान पर खेलते हैं और मनोरंजन का साधन बनते हैं। मैदान तो बड़े खिलाड़ी मारते हैं। जो देखते ही देखते, खेल के बजट को कई गुना बढ़ा जाते हैं। छोटे खिलाड़ियों की बेचारगी की क्या कहें, वे तो बड़े खिलाड़ियों के रहमो-करम पर रहते हैं। जब उनका मन बनता है तो अदने से खिलाड़ियों के लिए थोड़ी-बहुत वेलफेयर कर, सुर्खियां बटोरी जाती है, लेकिन जब इन्हीं बड़े खिलाड़ियों को तिजोरी भरनी रहती है तो वे सुर्खियों पर बने रहना पसंद नहीं करते। मेरे 10 साल के भतीजे ने पिछले दिनों टेलीविजन पर खिलाड़ियों का खेल देखा तो मुझसे पूछा - हमारे देश में कितने बड़े खिलाड़ी हैं, मैंने उसे बताया, देश भर में बड़े खिलाड़ी ही तो हैं, क्योंकि उनके आगे छोटे खिलाड़ियों का बस ही नहीं चलता। उसने दोबारा पूछा कि आखिर ऐसा क्यों, इस बात पर मैंने कहा कि बड़े खिलाड़ी, पैसों से खेलते हैं और छोटे खिलाड़ी मैदान पर किसी गेंद या और दूसरी चीजों से फिजूल का उछल-कूद करते हैं, क्योंकि मलाई तो उन्हें मिलने वाली होती नहीं है। फिर उसने एक और सवाल दागा और कहा कि मैं भी खेलता हूं और बड़ा होकर बड़े खिलाड़ी बनूंगा, इस पर मैंने उसे समझाया और कहा - बेटा, बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए मुंह को कालिख से पोतना पड़ता है और देश में बदनामी के बाद भी बेगैरत बने रहना पड़ता है। इस पर उसने कहा कि मैं मैदान पर खेलने वाला खिलाड़ी बनूंगा, न कि देश के खजाने को लुटाने वाला खिलाड़ी। इन बातों से उन जैसों को कहां फर्क पड़ने वाला है, जो बिना पहुंच के बगैर बात ही नही करते। हम तो अपना छोटा मुंह बंद करके रखते हैं, क्योंकि हमारी पहुंच तो केवल मोहल्ले की गलियों तक ही है और उन्हीं से मेरी जान-पहचान है, लेकिन पहुंचे हुए बड़े खिलाड़ियों का याराना.........।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाल्टी भर पसीने की अमर कहानी

बढ़ते तापमान और दिनों-दिन घटते जल स्तर से भले ही सरकार चिंतित न हो, मगर मुझ जैसे गरीब को जरूर चिंता में डाल दिया है। सरकार के बड़े-बड़े नुमाइंदें के लिए मिनरल वाटर है और कमरों में ठंडकता के लिए एयरकंडीषनर की सुविधा। ऐसे में उन जैसों के माथे पर पसीने की बूंद की क्या जरूरत है, इसके लिए गरीबों को कोटा जो मिला हुआ है। पसीने बहाने की जवाबदारी गरीबों के पास है, क्योंकि यही तो हैं, जिनके पास ऐसे संसाधन नहीं होते या फिर उन जैसे नुमाइंदों को फिक्र नहीं होती कि खुद की तरह तो नहीं, पर इतना जरूर सुविधा दे दे, जिससे गरीबों का खून ना सूखे। बड़े लोगों के लिए तमाम तरह की सुविधा किसी से छुपी नहीं है, लेकिन हम गरीबों को मिलने वाली सुविधा छिपाई तो नहीं जाती, वरन् हड़प जरूर ली जाती है। इन्हीं बातों को लेकर कुछ लिखने के लिए मैं बैठा था, इसी दौरान मुझे आंख लग गई और मैं गहरी सोच में डूब गया। मैं अपने गांव के मोहल्लों में तफरीह के लिए निकला, वहां मैंने देखा कि गांव के का एक व्यक्ति पसीने से तर-बतर है। हैण्डपंप से वह पानी लेने के लिए बहुत समय से नल के मुंह पर बाल्टी लगा रखा है और वह हैण्डपंप का, हैण्डल मार-मारकर थक गया है। उसके पहने हुए कपड़े पसीने से भीगे पड़े हैं और दूसरी ओर हैण्डल के पास रखी, दूसरी बाल्टी पसीने से भर रही है। वह हैण्डल पर हैण्डल, दिए जा रहा है, मगर हैण्डपंप है कि पानी ही नहीं उगल रहा है। मैंने पास जाकर उस व्यक्ति से पूछा, क्यों भाई, हैण्डपंप में तो पानी नहीं निकल रहा है, उल्टे तुम्हारे पसीने से दूसरी बाल्टी भर गई है। इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि क्या करें भाई, गांव में गर्मी के कारण हैण्डपंप के हलक सूखे पड़े हैं। इसलिए कोषिष कर रहे हैं कि कैसे भी हैण्डपंप से पानी निकल आए, क्योंकि प्यास से कोई बड़ी चीज थोड़ी ना है। इसके बाद मैंने उससे पूछा कि हैण्डपंप से पानी के बजाय, बाल्टी पसीने से भर गई है, इसकी तुम्हें चिंता नहीं है ? इस पर उस व्यक्ति ने जवाब देते हुए जो कहा, उससे मेरे कान खड़े हो गए, हम तो गरीब हैं, भैया और गरीबों का सुनने वाला कौन है ? भला गरीबों का हमदर्द कोई होता है, क्या। उसने कहा कि यह कोई इसी साल की समस्या नहीं है, पिछले कई दषकों से हम तो ऐसे ही जी रहे हैं और हर बरस ऐसे ही हम जैसों का पसीना बहता है। गांव-गांव में कभी-कभार बड़े लोग आकर गर्मी मंे पानी की कोई कमी नहीं होने की तसल्ली दे जाते हैं, लेकिन हालात वही है, जैसे बरसों पहले थे। हमने भी इसे अपने कर्म का लेखा मान लिया है औेर जैसी बन पड़ रही है, वैसी जिंदगी जी रहे हैं। उसने कहा कि हम तो गंवार और गरीब हैं, भला हम जैसे लोगों को पानी की इतनी ज्यादा जरूरत, किस बात की है। जरूरत तो पानी पीने वाले उद्योगों को है, सरकार भी उन पर मेहरबान है। नदी-नालों में कल-कल कर बहता पानी पर, हम जैसे गरीबों का कोई हक हो सकता है ? हम तो इसी बात से मन को मसोसकर रख लेते हैं कि बड़े लोगों का जीना, जीना है और पानी पीने का हक भी उन्हें है, हम जैसे गरीबों के लिए हवा जो है, जिस पर ऐसे कारिंदों का कुछ नहीं चलता। हालांकि इस बात को लेकर भी हव चिंतित हैं कि जो हवा हमें मिली हुई है, उस पर भी अब उद्योगों के प्रदूषण का जहर घुल रहा है, उस पर भी अब उद्योगों के प्रदूषण का जहर घुल रहा है। इस तरह मैं तो सोच-सोचकर घबरा जा रहा हूं कि क्या हम जैसे गरीबों के बाल्टी-बाल्टी भर पसीने इसी तरह ऐसे ही बहते रहेंगे ?
बाद में अचानक मैं जागा तो देखा कि मैं भी पसीने से तर-बतर हूं, क्योंकि बिजली जो चली गई थी। फिर मैं यही सोचकर मुस्कुराता रह गया कि बरसों से गरीबों के पसीने बहाने की अमर कहानी ऐसी ही चल रही है और यह तो गरीबों को होने वाली तकलीफों का एक छोटा सा हिस्सा ही है।

सोमवार, 1 नवंबर 2010

सरकार के सरकारी पुलाव

सरकार के काम करने के अपने तौर-तरीके होते हैं और वह जैसा चाहती है, वैसा काम कर सकती है। भला आम जनता की इतनी हिम्मत कहां कि उन्हें रोक सके। सरकारी कामकाज में सरकार और उनके मंत्रियों की मनमानी तो जनता वैसे भी एक अरसे से बर्दाष्त करती आ रही है। जनता तो बेचारी बनकर बैठी रहती है और सरकार भी हर तरह से उनकी आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आती। विकास के नाम पर सरकार के सरकारी पुलाव तो जनता पचा जाती है, मगर जब सुुरक्षा की बात आती है तो फिर जनता के पास रास्ते नहीं बचते। वैसे तो सरकार का दायित्व बनता है कि वे जनता की हिफाजत के लिए तमाम तरह की पहल करे और नीतियां बनाए, किन्तु यह सब ना हो तो फिर जनता आखिर जाएं तो जाएं कहां ? जनता इन्हीं बातों को सोच-सोचकर आधी हुई जा रही है, पर सरकार के कारिंदे हैं कि दोहरा हुए जा रहे हैं। इन दिनों देष के कई इलाकों में हो रहे माओवादी और नक्सली हमले से मेरा दिल दहला हुआ है और जनता भी भयभित है, मगर सरकार है कि बातों-बातों के सरकारी पुलाव पकाने से बाज नहीं आ रही है। खून के प्यासे फल-सब्जियों की तरह निर्दोश लोगों के गला रेते जा रहे हैं और सरकार में बैठे ओहदेदार नुमाइंदे बयान देकर चुप बैठ जाते हैं। हम तो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि ये जान के दुष्मन आखिर सरकार की नीतियांे के खिलाफ हैं या फिर जनता के बीच दहषतगर्दी फैलाना चाहते हैं। रोज-रोज की झंझट से जनता भी त्रस्त है, लेकिन सरकार के पास सरकारी पुलाव जो है, उसी से सरकार अपना काम चला रही है। इन घटनाओं के आगे महंगाई जैसी देष की सबसे बड़ी समस्या गौण हो चुकी हैं। बाहर में बैठे जनता के सेवक भी इस बात को भूले बैठे हैं, क्योंकि इन हिंसाओं के बाद इसके उपर और किसी तरह की समस्या हो ही नहीं सकती। देष के आधे राज्य इस आग में जल रहे हैं, पांच प्रदेषों में तो जनता बेचारी ऐसी ही मारी जा रही है।ं सरकार देखती है, सुनती है और चिंता व्यक्त करती है, लेकिन माथे पर चिंता की एक भी षिकन कहीं नहीं दिखता, आसमान को सिर पर उठाने जैसी हरकत जरूर होती है। देष में तमाम तरह की समस्याएं हैं और सरकार इन समस्याओं को मिनटों में खत्म करने का दावा करती है, या कहें कि कुछ ही मामले, तुरंत-फुरत निपटाए भी जाते हैं, लेकिन देष की इस गंभीर समस्या पर सरकार ने कितना कदम आगे बढ़ाया है, यह तो पता नहीं चलता, मगर सरकार पुलाव के कड़ा स्वाद का पता जरूर चल जाता है। मैं देष की इस बड़ी समस्या से सहम गया हूं और सोच रहा हूं कि जब सरकार कुछ कर नहीं सकती तो फिर जनता के हितों की रक्षा की ताल ठोंकने का भला क्या मतलब। जतना चिल्ला-चिल्लाकर थक जा रही है और प्रभावित क्षेत्रों में जान लेने की बीमारी कोढ़ की तरह बढ़ती जा रही है, किन्तु सरकार किस धुन पर राग मिला रही है, इसे जनता समझ नहीं पा रही है। केवल चिंता जता लेने से ही समस्या खत्म होने वाली नहीं है, लेकिन उनको कौन समझाए कि इस तरह इस मर्ज का इलाज संभव नहीं है। सरकार तो उनसे बात करना चाहती है और दुष्मन है कि मिठी बातों का जवाब, बंदूक की गोलियों से देता है। हम यही मानते हैं कि बातचीत से जरूर छोटी-मोटी समस्या को सुलझायी जा सकती हो,ं पर यह बीमारी ऐसी हो गई है, जिस पर फौरी तौर पर कोई दवा नहीं खोजी गई तो फिर यह एक ऐसी संक्रामक बीमारी का रूप ले लेगी, जिसके प्रभाव से ना तो जनता बच पाएगी और ना ही सरकार। फिर सरकार के सरकारी पुलाव, धरी की धरी रह जाएंगे। बातों से किसी से वैचारिक जीत संभव है, लेकिन मौत की इस लड़ाई में माहिर उन लोगों से ऐसे जीत लेने की उम्मीद करना, उस तरीके से हो जाता है, जैसे पत्थर से पानी निकालना। अब तो मेरा दिल भर आया है और मैं सोच रहा हूं कि आखिर यह मौत का आतंक रूकेगा कब, और जनता कब, चैन की नींद सो पाएगी ? हम यही कहेंगे कि तब, जब सरकार अपने सरकारी पुलाव के कड़वा स्वाद से सबक लेना सीख जाएगी।

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

दिखने वाले कलमकार के रूतबे

बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में उन जैसे कलमकारों से कौन भौंचक्के न खाए। कलम की स्याह कागज पर रंगे, ना जाने कितने दिन बीत गये, मगर लिखने का जुनून हर पल सवार रहता है। हर रोज लिखने की तमन्ना जाहिर की जाती है और यही फलसफा रोजाना चलता रहता है।

ऐसे ही कई कलमकारों से मैं परिचित हूं और उनसे मेरी मुलाकात खबरों के माध्यम से कभी उनके पत्र-पत्रिकाओं में नहीं होती। हां, किसी बड़े नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस या फिर कुछ ऐसे आयोजनों में भेंट हो जाती है, क्योंकि सवाल यहां चेहरा दिखाने की होड़ जो मची रहती है। चेहरा दिखाए और खबरों का कव्हरेज भी किए, लेकिन वही रोजाना का भूत, फिर भूल गए कि सफेद कागज का रंगना कैसे है ? दिखने कलमकारों से यहीं बेचारे लिखने वाले कलमकार फेल हो जाते हैं, क्योंकि उनकी जिंदगी चार खबरों तक सिमटी रहती है। दिखने वाले कलमकार भाई, वैसे तो दिन में कई जगहों पर अपना पग रखकर, आयोजन और आयोजनकर्ताओं को धन्य कर देते हैं, लेकिन लिखने वाले कलमकारों की मजबूरी कहंे कि उन्हें हर दिन कलम कागज पर रगड़ना ही है। उपर से बढ़िया खबर बनाने का दबाव अलग, इस तरह भला कैसे वो दिखने वाले कलमकारों के सामने ठहर सकते हैं और उस होड़ में षामिल होने की हिम्मत जुटा सकते हैं, क्योंकि रोजी-रोटी का सवाल है। वे तो अपना जुगाड़ कहीं न कहीं से जमा लेंगे, लेकिन हमें तो इन चार खबरों का ही सहारा है। सुबह से षाम तक खबरों की ठोह लेने में ही लिखने वाले कलमकारों के चैबीसों घंटे बीतते हैं और क्या खाना और क्या पीना, हर पल केवल खबरों की भूख। इन सब बातों से हमारे दिखने वाले कलमकार भाई परे रहते हैं, क्योंकि उन्हें न तो खबरें तैयार करने की झंझट होती है, ना ही किसी तरह का कोई और बंदिषें। उनके पास केवल एक ही झंझट होती है कि कैसे अपने दिखावे के रूतबे को बढ़ाया जाए। वे हर जगह नजर आते हैं, उनकी सोच रहती है, इसी बात से रूतबा बढ़ जाए। यहां सभी ओहदेदार अफसरों से परिचय होता है। इस मामले में बेचारे लिखने वाले कलमकार किस्मत के मारे होते हैं, रोज-रोज लिखने के बाद भी दिखने वाले चेहरे के सामने उनके चेहरे कहीं गौण हो जाते हैं।


मीडिया क्षेत्र में आई क्रांति से कलमकारों की संख्या में एकाएक इजाफा हुआ, मगर पत्रकारिता और साहित्य के बारे में सोचने की भला उनके पास समय कहां, वे तो अपने बारे में सोचते हैं कि कैसे अपना रूतबा बढ़ाया जाए और अपना धाक बढ़ाया जाए। बेचारे लिखने वाले कलमकार इन आंखों देखी हालात पर सिसककर रह जाते हैं। उन्हें ऐसी हालात देखकर दुख भी होता है, होना भी चाहिए, क्योंकि कोई दिन भर गधा की तरह काम करे और दूसरा उसका मेहनताना आकर ले जाए, यह तो सरासर गलत है। दिन-रात खबरों के पीछे भागकर खून कोई और सुखाए तथा अपनी जिंदगी को खबरों के नाम कर दे, लेकिन जब उसका भुगतान लेने की बारी आई तो लाइन में किसी और खड़ा होना, कौन भा सकता है। दिखने वाले कलमकारों की साख के आगे भला लिखने वालें की क्या साख हो सकती है, क्योंकि वे तो मंत्रियों और अफसरों के चहेते जो होते हैं, भले ही इसके लिए उन जैसे दिखने वाले कलमकारों को अपना स्वाभिमान ही गिरवी ना रखना पड़े। आखिर में सवाल, दिखावे के रूतबे का जो है, यदि यहीं नहीं रहेगा तो धंधा फिर मंदा पड़ जाएगा और जब धौंस ही नहीं रहेगी तो काहे का कलमकार।