शनिवार, 18 दिसंबर 2010
विकीलिक्स ये भी बताएं
देखा जाए तो विकीलिक्स ने जो कारनामा कर दिखाया है, वह अब तक किसी के नहीं किया। हमारे देश में भ्रष्टाचार, घोटाले समेत तमाम कार्य पूरी ईमानदारी से किए जाते हैं, मगर कोई खुलासा थोड़ी ना कर सकता है ? एक बात है कि जनता विकीलिक्स के खुलासे देख रही है कि कैसे, किसने, क्यों व क्या गुल खिलाया है ? मैं तो विकीलिक्स के रोज-रोज खुलासे से दंग रह गया हूं कि किस खातिर, क्यों तथा किस तरह, किससे, कैसी-कैसी बातें होती हैं ? किसे परवाह है कि क्या कुछ कहने से देश का बेड़ा का गर्क हो जाएगा और खुद के चेहरे पर कालिख पुत जाएगी ? विकीलिक्स के परदे उठाने के कारण देश का राजनीतिक पारा तो चढ़ गया है और नहीं लगता कि अभी इसका तापमान कम होगा। मैं तो यह भी सोच रहा हूं कि एक विकीलिक्स से इतना कुछ भीतर से बाहर आया है, यदि एक-दो और हो जाए तो फिर तो क्या कहने ? विकीलिक्स की सूची में अब बड़े नाम भी आ गए हैं, इसी के चलते कई चेहरों की रंगत भी उतरी हुई है कि कहीं विकीलिक्स की टेढ़ी नजर उन पर न पड़ जाए। विकीलिक्स ने जिस तरह तूफान की भांति आकर दुनिया को बिदबिदाने का काम किया है और फिलहाल कई दिनों से वह पूरी रंग में दिख रही है, इस हालात में मीडिया को भी बैठे-ठाल्हे कई दिनों का खुराक नसीब हो गया है। आज हर किसी की जुबान पर एक ही नाम है, वह विकीलिक्स। हो भी क्यों न, काम ही वैसा किया है, सूचना पहुंचाने का बड़ा जरिया जो साबित हुआ है। देश का सूचना तंत्र भले ही कमजोर हो, लेकिन पड़ोसी की मेहरबानी से जुगाड़ में घर बैठे जैसे-तैसे कुछ सूचना तो मिल जा रही है, ना।
अब तो मैं यहां तक सोचने लगा हूं कि क्यों न इसी तरह और विकीलिक्स तैयार किए जाएं, जिससे कुछ तो पता चलें, नहीं तो हम जैसे अदने से व्यक्ति के पास इतनी भारी-भरकम जानकारी भला कहां से आएगी। शुक्र है, इस विकीलिक्स का, जिसने कुछ दिनों का ठेका जो ले लिया है। मैं तो जूलियन असांज से यही पूछना चाह रहा हूं कि ऐसी विकीलिक्स और है कहां ?
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
मालदार गरीब का मुखौटा
रविवार, 7 नवंबर 2010
राजनीति की निराली कहानी
शनिवार, 6 नवंबर 2010
पहुंचे हुए बड़े खिलाड़ी
बुधवार, 3 नवंबर 2010
बाल्टी भर पसीने की अमर कहानी
बाद में अचानक मैं जागा तो देखा कि मैं भी पसीने से तर-बतर हूं, क्योंकि बिजली जो चली गई थी। फिर मैं यही सोचकर मुस्कुराता रह गया कि बरसों से गरीबों के पसीने बहाने की अमर कहानी ऐसी ही चल रही है और यह तो गरीबों को होने वाली तकलीफों का एक छोटा सा हिस्सा ही है।
सोमवार, 1 नवंबर 2010
सरकार के सरकारी पुलाव
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010
दिखने वाले कलमकार के रूतबे
ऐसे ही कई कलमकारों से मैं परिचित हूं और उनसे मेरी मुलाकात खबरों के माध्यम से कभी उनके पत्र-पत्रिकाओं में नहीं होती। हां, किसी बड़े नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस या फिर कुछ ऐसे आयोजनों में भेंट हो जाती है, क्योंकि सवाल यहां चेहरा दिखाने की होड़ जो मची रहती है। चेहरा दिखाए और खबरों का कव्हरेज भी किए, लेकिन वही रोजाना का भूत, फिर भूल गए कि सफेद कागज का रंगना कैसे है ? दिखने कलमकारों से यहीं बेचारे लिखने वाले कलमकार फेल हो जाते हैं, क्योंकि उनकी जिंदगी चार खबरों तक सिमटी रहती है। दिखने वाले कलमकार भाई, वैसे तो दिन में कई जगहों पर अपना पग रखकर, आयोजन और आयोजनकर्ताओं को धन्य कर देते हैं, लेकिन लिखने वाले कलमकारों की मजबूरी कहंे कि उन्हें हर दिन कलम कागज पर रगड़ना ही है। उपर से बढ़िया खबर बनाने का दबाव अलग, इस तरह भला कैसे वो दिखने वाले कलमकारों के सामने ठहर सकते हैं और उस होड़ में षामिल होने की हिम्मत जुटा सकते हैं, क्योंकि रोजी-रोटी का सवाल है। वे तो अपना जुगाड़ कहीं न कहीं से जमा लेंगे, लेकिन हमें तो इन चार खबरों का ही सहारा है। सुबह से षाम तक खबरों की ठोह लेने में ही लिखने वाले कलमकारों के चैबीसों घंटे बीतते हैं और क्या खाना और क्या पीना, हर पल केवल खबरों की भूख। इन सब बातों से हमारे दिखने वाले कलमकार भाई परे रहते हैं, क्योंकि उन्हें न तो खबरें तैयार करने की झंझट होती है, ना ही किसी तरह का कोई और बंदिषें। उनके पास केवल एक ही झंझट होती है कि कैसे अपने दिखावे के रूतबे को बढ़ाया जाए। वे हर जगह नजर आते हैं, उनकी सोच रहती है, इसी बात से रूतबा बढ़ जाए। यहां सभी ओहदेदार अफसरों से परिचय होता है। इस मामले में बेचारे लिखने वाले कलमकार किस्मत के मारे होते हैं, रोज-रोज लिखने के बाद भी दिखने वाले चेहरे के सामने उनके चेहरे कहीं गौण हो जाते हैं।
मीडिया क्षेत्र में आई क्रांति से कलमकारों की संख्या में एकाएक इजाफा हुआ, मगर पत्रकारिता और साहित्य के बारे में सोचने की भला उनके पास समय कहां, वे तो अपने बारे में सोचते हैं कि कैसे अपना रूतबा बढ़ाया जाए और अपना धाक बढ़ाया जाए। बेचारे लिखने वाले कलमकार इन आंखों देखी हालात पर सिसककर रह जाते हैं। उन्हें ऐसी हालात देखकर दुख भी होता है, होना भी चाहिए, क्योंकि कोई दिन भर गधा की तरह काम करे और दूसरा उसका मेहनताना आकर ले जाए, यह तो सरासर गलत है। दिन-रात खबरों के पीछे भागकर खून कोई और सुखाए तथा अपनी जिंदगी को खबरों के नाम कर दे, लेकिन जब उसका भुगतान लेने की बारी आई तो लाइन में किसी और खड़ा होना, कौन भा सकता है। दिखने वाले कलमकारों की साख के आगे भला लिखने वालें की क्या साख हो सकती है, क्योंकि वे तो मंत्रियों और अफसरों के चहेते जो होते हैं, भले ही इसके लिए उन जैसे दिखने वाले कलमकारों को अपना स्वाभिमान ही गिरवी ना रखना पड़े। आखिर में सवाल, दिखावे के रूतबे का जो है, यदि यहीं नहीं रहेगा तो धंधा फिर मंदा पड़ जाएगा और जब धौंस ही नहीं रहेगी तो काहे का कलमकार।