गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

‘ऐरे-गैरे’ की प्रतिक्रिया

एक बात तो है, जो ‘आम’ होता है, वही ‘खास’ होता है। अब देख लीजिए ‘आम’ को, वो फलों का ‘राजा’ है। नाम तो ‘आम’ है, मगर पहचान खास में होती है। हर ‘आम’ में ‘खास’ के गुण भी छिपे होते हैं। जो नाम वाला बनता है, एक समय उन जैसों का कोई नामलेवा नहीं होता। जैसे ही कोई उपलब्धि हासिल हुई नहीं कि ‘आम’ से बन जाते हैं, ‘खास’।
देख लीजिए, हमारे क्रिकेट के महारथी, ‘कैप्टन-कुल’ को। जब वे क्रिकेट की दहलीज पर कदम रखे तो उन्हें कोई नहीं जानता था, उनकी बस इतनी ही पहचान थी, जैसे वे आजकल बोले जा रहे हैं, ‘एैरे-गैरे’ की। परिस्थतियां बदलीं, दो-चार धमाल किया, हैलीकाप्टर शॉट की झलक दिखाई। फिर क्या था, बन गए ‘आम‘ से ‘खास’। क्रिकेटप्रेमी की एक बड़ी खासियत है, जब तक बल्ला बोलता है, तब तक इनकी जुबान मीठी होती है और जैसे ही बल्ला शांत होता है, उसके बाद जुबान इतनी कड़वी हो जाती है कि ‘खास’ की भी औकात ‘आम’ की हो जाती है।
हमारे ‘कैप्टन-कुल’ ने न जाने कई सीरीज जीतायी और देश के भरोसेमंद के साथ ही उपलब्धि वाले कैप्टन बन गए। क्रिकेटप्रेमियों ने भी उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया, लेकिन ‘चार दिन की चांदनी’ की तर्ज पर अब कैप्टन-कुल की कैप्टेंसी पर ही सवाल दागे जा रहे हैं। कई ‘ऐरे-गैरे’ भी कैप्टन-कुल का छिछालेदर कर रहे हैं। कोई कह रहा है, कैप्टन-कुल को कैप्टेंसी छोड़ देनी चाहिए, कई सीरीज हार गए। बरसों से बल्ला नहीं चला। हमारे क्रिकेटप्रेमी, कैप्टन-कुल को कहीं ये न सलाह दे दे कि जब बेहतर नहीं खेल सकते तो क्रिकेट को अलविदा कह दो। इससे पहले ही कैप्टन-कुल के गरम दिमाग से बातें निकलीं कि कोई ‘ऐरा-गैरा’ उनके खेल पर सवाल न खड़ा करे।
हम तो यही कहेंगे, कैप्टन-कुल साहब। आपकी नजर में आपको सिर पर बिठाने वाले क्रिकेटप्रेमी ‘ऐरे-गैरे’ हैं तो फिर आपकी पहचान बनाने वाले भी, यही ‘ऐरे-गैरे’ हैं। ऐसे में आपकी तो औकात उन करोड़ों ऐरे-गैरों से भी कम हैं, जिनकी आपके सामने कोई हैसियत नहीं है। हार के बाद झल्लाहट जरूरी है, लेकिन जो खुद को ‘कुल कैप्टन’ कहलावकर वाह-वाही लूटता हो, उनसे ऐसी उम्मीद भला कोई कर सकता है ? कैप्टन-कुल को ये शोभा नहीं देता, उन्हें तो कहना चाहिए। मुझमें जितना कीचड़ उछालना है, उछालो, क्या फर्क पड़ता है। क्रिकेट के नाम पर कई बार कीचड़ उछाले जाते रहे हैं, एक कीचड़, और सही।
खैर, क्रिकेटप्रेमी अपने मन की मर्जी के मालिक होते हैं, वे तो जिन्हंे भगवान मानते हैं, उन्हें रास्ते से हट जाने की दुहाई दे देते हैं, फिर ‘कैप्टन-कुल’ की क्या बिसात, जिनका दिमाग कभी भी बिफर जाता है ? हालांकि, ये सब बातें, ‘ऐरे-गैरों’ को समझ में आती, तो फिर वे भूख-प्यास के साथ क्यों क्रिकेट देखते। क्यों अपनी दिन खराब करते ? क्यों सिर खपाते क्रिकेट की किचकिच में ? किसी की, जब कोई नुमाइंदगी करता है तो निश्चित ही उसके सामने, ऐसे लोगों की हैसियत ‘ऐरे-गैरे’ की ही होती है। अब तो इन ‘ऐरे-गैरों’ को भी ‘आम’ से ‘खास’ बने, ‘कैप्टन-कुल’ की सुध छोड़ ही देनी चाहिए, फिर पता चलेगा कि आखिर कौन है, ऐरा-गैरा ? मैं भी ‘ऐरा-गैरा’ ही हूं, मैंने तो अपना काम कर दिया और आप, कब करेंगे ?

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

मीठी बातों का फसाना

‘मीठी बातें’ किसे पसंद नहीं होती। हर कोई मीठी बातों का मुरीद होता है। हों भी क्यों नहीं, डायबिटीज, भले ही हो जाए, भला कोई मीठे से परहेज करता है। कहीं मीठा दिखा नहीं कि आ गया, मुंह में पानी। ऐसा ही है, मीठी बातों का फसाना, जिसके आगे-पीछे केवल मिठास का ही बिन सुनाई देता है, जिसके आगे कोई सांप नहीं नाचता, बस नाचता है तो मन मोर। मीठी बातों के आगोश में हर कोई समाना चाहता है। चाहे वह बातें क्यों न, तन-मन में कड़ुवाहट घोल दे। क्या कहें, मन की चंचलता के आगे कहां कोई ठहरता है। जो मन को काबू में कर ले, वह तो मीठी बातों की चरम सीमा को पार पा ही लेता है।
अब देख लो, हमारे नेताओं को। चुनाव आते ही मुंह से ‘मीठे बोल’ निकल पड़ते हैं और निगाहें ऐसी होती हैं, जैसी ‘मीठी बरसात’ हो जाए। आलम यहीं नहीं रूकता, मीठी-मीठी घोषणाओं से मन को रमने की कोशिश होती है और हम उन्हें पांच साल के लिए वोट की ‘मीठी बोतल’ थमा देते हैं, मगर उस मीठी बोतल से हमारे नेताओं को चढ़ जाता है, नशा का शुरूर। जिसे उतरने में लगता है, फिर पांच साल।
देश में जिन्हें हमने सरकार चलाने की जिम्मेदारी दी है, वे क्या, कम मीठी बातें करते हैं। महंगाई को सौ दिनों में खत्म करने की मीठी कहानी, आज भी कानों में गूंजती है। न जाने, वो ‘सौ दिन’ कब पूरे होंगे, जिसके बाद महंगाई ‘डायन’ से निजात मिल सके। सरकार की मीठी बातें सुनने की जैसी आदत हो गई है। गैस सिलेण्डर में सब्सिडी घटाने की ‘कड़वी बातें’ सुनने के बाद सरकार पर गुस्सा आ गया। जिनके पहले कार्यकाल में जो मीठी बातें कही गई थीं, वो बातें सपने बनकर ही रह गई हैं। शायद, सरकार के एक महाशय को पता चला होगा कि देश का आम आदमी उनके इस निर्णय से कितना परेशान है। इन बातों के उधेड़बुन में खबर आई कि अब गैस सब्सिडी बढ़ाई जाएगी। सरकार की मीठी बातें सुनंे, एक अरसा बीत चुका था, लिहाजा मन को बहुत सुकून मिला, क्योंकि मीठी बातें निश्चित ही किसी दवा की खुराक से कम नहीं होती, जो शरीर के लिए संजीवनी का काम करती हैं। महंगाई के कारण शरीर की जिन नसों में जकड़न आ चुकी थी, गैस सब्सिडी बढ़ाने की मीठी बात से उसमें नई जान आ गईं।
इतना तो है कि गरीबी के कई झटके के बाद, आम आदमी मीठी बातें भूल सा जाता है, उन्हें याद होती हैं तो बस ‘दो जून रोटी’ की बातें। फिर भी सरकार की मीठी बातों पर वह पूरा विश्वास करते नजर आता है। आजादी के बाद से मीठी बातों का जो फुहार शुरू हुई है, वह आज तक नहीं रूकी है। गरीबों को इन मीठी बातों से कितना लाभ हुआ, वो तो ‘हाड़मांस’ होते गरीबों और दुबराए जा रहे हमारे कर्णधारों को देखकर ही पता चल जाता है।
मीठी बातें निश्चित ही प्रिय होती हैं। जीवन में इसकी जरूरत भी है, लेकिन हर तरफ जिस तरह मीठी बातों का फसाना शुरू हुआ है, उसके बाद मीठी बातें भी अब कड़वी समझी जाने लगी हैं। मीठी बातों के भी दो अर्थ निकाले जाने लगे हैं, ये तो अर्थ निकालने वाले के नजरिये पर निर्भर होता है। इससे ही समझा जा सकता है कि मीठी बातों में कितनी गहराई छिपी है। ये तो, ‘मीठी बातों के सागर’ में डूबकी लगाने वाले की सहनशीलता की बात है। लगता है, ऐसी सहनशीलता ‘गरीबों’ के ही बस की बात है।