रविवार, 27 मार्च 2011

उफ ! ये क्रिकेट की किचकिच

अभी विश्वकप क्रिकेट का दौर चल रहा है। खिलाड़ी जो प्रदर्शन कर रहे हैं, वो जैसा भी हो, मगर हर कोई अपना राग अलाप रहा है। स्थिति तो ऐसी हो गई है कि जितने मुंह, उतनी बातें। विश्वकप कोई भी टीम जीते, लेकिन जुबानी जमा खर्च करने में हर कोई माहिर नजर आ रहे हैं। यही कारण है कि क्रिकेट की किचकिच में देश का हर मुद्दा चर्चा से गायब हो गया है। फिलहाल क्रिकेट में सब उलझे हुए हैं। जब क्रिकेट की बात शुरू होती है तो क्रिकेटेरिया के हर बाहरी खिलाड़ी अपने तर्क का हथौड़ा लगाने तथा बातों-बातों में दो-दो हाथ आजमाने से नहीं चूकते।

एक दिन पहले की बात है, मैं घर से निकल रहा था। देखा, पड़ोस के एक मकान में लोगों का मजमा लगा है। पूछने पर पता चला कि विश्वकप क्रिकेट का मैच चल रहा है। घर के एक छोटे से कोने में टीवी चल रही थी और जहां दो कुर्सियां लगानी मुश्किल है, वहां एक-दूसरे पर, पैर पसारे कई लोग क्रिकेट के बुखार में तप रहे हैं। ऐसा लगा, जैसे वह घर न होकर क्रिकेटेरिया का गढ़ बन गया हो। बात यहीं खत्म नहीं होती, क्रिकेट मैच चल रहा है, किन्तु हर किसी के अपनी बानगी है। क्रिकेट की दीवानगी इस कदर छाई है कि न भूख की चिंता, न प्यास की। मुंह से निकली एक-दूसरे की बातों से ही भूख मिट रही है। कई तो ऐसे हैं, जो सुबह घर से निकले तो फिर देर रात घर पहुंचते हैं। पूरे दिन क्रिकेटेरिया निशाचर होकर रह गए हैं। घरेलू क्रिकेटेरिया में ऐसे लोगों का मजमा देखकर मुझे हैरानी हुई कि जिन्हें क्रिकेट की एबीसीडी मालूम नहीं है, वह भी आंख गड़ाए ताक रहा है ? केवल इतना देख रहा है कि कोई सामने खड़ा व्यक्ति लकड़ी का पाटा पकड़ा हुआ है और कई लोग उसकी ओर निहार रहे हैं। दूसरी छोर से एक व्यक्ति दौड़ रहा है और अपने हाथ में रखी गोलनुमा कोई चीज फेंक रहा है। बातों-बातों में उसे पता चलता है, जिसे पूरी ताकत लगाकर फेंकी जा रही है, उस ना चीज को गेंद कहते हैं। इस खेल में भी गेंदा को ही क्रिकेटेरिया में घूमने की पूरी छूट है और इस हाथ से उस हाथ में मसलाने का भी सौभाग्य उसे ही मिला हुआ है ?

इस बीच मैं सोचने लगा कि हम भी तो ऐसी किसी गेंद की तरह हैं, जिसे एक धड़ा फेंकता है तथा दूसरा धड़ा जहां चाहता है, वहां उठाकर रख देता है, नही ंतो पटक देता है। मन किया तो सुध ले ली, नहीं तो भाड़ में जाए...। फिर ध्यान में आया कि खिलाड़ियों पर प्रशंसकों की पैनी निगाह होती है, वह कितना रन बना रहा है ? गेंदबाज कैसा कमाल दिखा रहा है ? फिल्डर तंदुरूस्त कितना है ? साथ ही मैदान के बाहर भी खिलाड़ियों के कई मार्गदर्शी होते हैं, लेकिन एक बात है कि देश की सत्ता चलाने वाले जो खिलाड़ी तैनात हैं, उन पर क्या कोई इतनी पैनी निगाह रखता है ? जो चल रहा है, अच्छा है, चलने दो, मेरा क्या जाता है ? ऐसा ही कुछ माहौल, क्यों न क्रिकेट में भी रहने दिया जाए ? वहां खिलाड़ी खेलते रहें और हम जिस तरह सत्ता की किचकिच से खुद को किनारे किए हुए हैं, कुछ उसी तरह क्रिकेटेरिया से भी परहेज कर लें। अभी के हालात में शायद किसी को मेरी यह बात अच्छी न लगे, क्योंकि हर कोई क्रिकेट की किचकिच में उलझा हुआ है तथा बातों का ताना-बाना बुनने में जुटा हुआ है। क्यों न, क्रिकेट की किचकिच पर भी कोई पुस्तक लिखा जाए। शायद अब इसकी जरूरत नहीं लगती, क्योंकि खुलासे के लिए विकीलीक्स है न...। जो हर दिन धमाकेदार खुलासे कर चौके पर चौके जड़ रही है।

सोमवार, 14 मार्च 2011

महंगाई का निचोड़पन

महंगाई का सिर दर्द लोगों में खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कोई दवा भी काम नहीं आ रही है और सरकार की अधमने उछल-कूद भी बेकार साबित हो रही है। एक समय दाल, भोजन की थाली से गायब हो गई। फिर बारी आई, प्याज की। प्याज ने तो इस तरह खून के आंसू रूलाए, जिसे न तो जनता भूल पाई है और न ही सरकार। जनता तो जैसे-तैसे प्याज के सदमे से उबर रही है, मगर सरकार, प्याज के दंभी रूख के कारण अभी भी विपक्ष के निशाने पर है। बेसुध महंगाई को चिंता ही नहीं कि सरकार से उसकी दुश्मनी, जनता पर कितनी भारी पड़ रही है ? सरकार के लिए तो महंगाई, डायन ही बन गई है। महंगाई इसलिए फिक्रमंद नहीं है कि कोई साथ चले न चले, किन्तु विपक्ष तो हमेशा साथ ही चलेगा। वह जनता के सीने पर खूब अठखेलियां खेल रही हैं और मुंह भी चिढ़ा रही हैं, जाओ मेरा जो बिगाड़ना है, बिगाड़ लो ? सरकार भी मुंह बांधे बैठी नजर आ रही है, क्योंकि महंगाई डायन की काली छाया उतरने का नाम नहीं ले रही है। जनता भी हलकान है, नजर उतारने के लिए नीबू माला की जुगत भिड़ाते तो उस पर भी महंगाई की नजर लग गई है ?

महंगाई का दंश यहीं नहीं थमा है, वह अब भी पूरी तरह ऐंठ रही है और यह जताने की कोशिश कर रही है कि उसकी बस चले तो वह सरकार की कुर्सी का पाया भी कमजोर कर दे। महंगाई के तेवर से सत्ता की कुर्सी हिली जरूर है और उसकी रहनुमाई से एक पक्ष में आस जगी है कि चलो, सियासत का रास्ता कुछ तो आसान हो रहा है ? कुर्सी की लड़ाई भी अजीब लगती है, क्योंकि महंगाई बढ़ने से एक पक्ष परेशान तथा हताश है तो दूसरा पक्ष, इस बात की खुशी मना रहा है कि महंगाई, आज नहीं तो कल सत्ता की चाबी जरूर साबित होगी। महंगाई भी सोच रही है कि चलो, इसी बहाने कुछ पूछ-परख तो हो रही है, नहीं तो लोग उसे ऐसे भूल जाते हैं, जैसे खुशियों के दौर में भगवान को ? चीजों के दाम आसमान पर होने के बाद भी महंगाई, डायन कहलाकर भी इतरा रही है और सोच रही है कि नाम सुनकर ही लोगों के माथे पर पसीना आ जा रहा है।

महंगाई की मार इतनी पड़ी कि क्या ठंड और क्या गर्मी ? सब दिन एक बराबर होकर रह गया है, क्योंकि कड़कड़ाती ठंड के बाद भी जैसे ही महंगाई का नाम आता है, जेब की गर्मी भी शांत पड़ जाती है। जेब का जितना भी मुंह खोलो, महंगाई के आगे कम पड़ ही जाता है। ऐसा लगता है कि जैसे महंगाई का मुंह सुरसा की तरह बढ़ रहा है और यही हाल रहा तो डायनासोर का मुंह भी छोटा रह जाएगा। ठंड के बाद अब गर्मी शुरू हो गई है, फिर भी महंगाई की बेरूखी व गरमाहट जारी है। मौसमी और महंगाई की गर्मी से जनता इस कदर पस्त हो गई है, जहां एक सहारा नजर आता है, वह है नीबू। एक बात है कि नजर उतारने के लिए नीबू की माला लगाई जाती है, लेकिन महंगाई डायन पर नीबू का कोई असर नहीं हो रहा है। नीबू भी बेबस बनकर रह गया है और महंगाई भी नीबू की तरह जनता को निचोड़ रहा है। बेचारी जनता इस तरह मारी जाती है, जहां वह न इधर की होती है, न उधर की। महंगाई के कारण गरीब जनता, उंचे दाम पर बिकने वाली चीजों को केवल देख सकती है। निहारने की पूरी आजादी है, मगर खरीदने की नहीं, क्योंकि महंगाई के निचोड़पन से जनता पस्त हो गई है। इस तरह सुस्ती पर चुस्ती कैसे आएगी, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है... सरकार बता पाए तो उन्हीं से पूछिए ?

शनिवार, 12 मार्च 2011

कैसे-कैसे इनकम !

अभी कुछ दिनों से टैक्स चोरी का मामला छाया हुआ है और देश को खोखला करने वाले सफदेपोश चेहरे पर कालिख भी लगी, मगर यह बात मैं सोच रहा हूं कि देश में कैसे-कैसे इनकम के तरीके हो सकते हैं ? जब कोई टैक्स पर ही इनकम निकाल लेने की क्षमता रखता हो, वैसी स्थिति में इनकम की कोई सीमा निर्धारित करना, मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के लिए मुश्किल लग रहा है। फिर भी एक बात तो है कि बदलते समय के साथ इनकम के दायरे बढ़ गए हैं और इनकम हथियाने वाले भी। कुछ नहीं बदला तो आम जनता की बदहाल जिंदगी और उनके हिस्से में आने वाली मेहनतकश रोटी।

कुछ लोग चेहरे पर चेहरा लगाकर इनकम का ऐसा जरिया तलाश लेते हैं, जहां एक बार हाथ मारो और फिर फुर्सत पाओ, पैर मारने से। कहा भी जाता है- मारो तो हाथी, लूटो तो खजाना। कुछ ऐसा ही चल रहा है, इनकम का तमाशा। जो जितना चाह रहा है, अपना हिस्सा निकाल ले रहा है, इसमें कोई रोक-टोक नहीं है। चोरी-चकारी के अपने इनकम होते हैं और जब स्टांप जैसे घोटाला होता है तो फिर इनकम के दायरे बढ़ जाते हैं। जब कोई बाबू छोटी-मोटी राशि घूस लेता है और वहीं करोड़ों की खरीदी कर खालमेल किया जाता है, यहां भी इनकम का सिस्टम बदल जाता है। आजकल काला धन का जिन्न सभी के दिमाग की बोतल में भरा हुआ है, वह बीच-बीच में बाहर निकलता है, उसके बाद फिर शुरू हो जाती है, भारी-भरकम इनकम की चर्चा। फलां व्यक्ति की कमाई इतनी है और फलां ने स्वीस बैंक में अनंत राशि जमा कर रखी है, जिसकी जानकारी पाने उसे खुद ही सिर खपाना पड़ेगा, क्योंकि कब कहां से, कितना जमा किया है, उसे मालूम कहां। सब हड़बड़ी में खेल होता है और हड़बड़ी में गड़बड़ी स्वाभाविक है। धन काला कहां हो सकता है, वो तो मन काला होता है। जब मन ही काला होगा तो फिर उस व्यक्ति की नजर में तो हर चीज काली होगी, न ?

देश की जनता से गद्दारी कर घोटाला करने की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है और यह समझना जैसे सिर से उपर हो चला है कि इनकम कैसे-कैसे होते हैं और कितने तरह के होते हैं ? गरीबों के इनकम तो बस केवल एक ही होती है, हाड़-तोड़ मेहनत। मगर सफेदपोशों का इनकम तो हाथ की सफाई में होता है और दिमाग की तिकड़मबाजी का परिणाम। गरीब कहां से तीन-पांच करे, क्योंकि भूख और पेट की चिंता के बाद फिर दूसरी बात इनकम की कहां रह जाती है ? जिनका पेट भरा है और कई पीढ़ी बैठकर खा सकेगी, वैसे ही लोगों को इनकम की चिंता रहती है। यह भी देख लोग भौंचक हैं कि घर की तिजोरी भी इनकम रखने के लिए कम पड़ जा रही है और बैंकों के लॉकर गुलजार हैं। ताला लगने के बाद लॉकर कब खुलेगा, उस इनकम के पट्टेदार को भी पता नहीं रहता। उस लॉकर में रखा इनकम छटपटाता रहता है, आखिर मैं कब बाहर निकलूंगा ? छापा पड़ने के बाद इनकम लॉकर से बाहर निकलकर, लंबी सांस लेते हुए कहता है कि अच्छा हुआ, नहीं तो मैं भीतर ही रहता और जिसने मुझे अंदर रखा था, वह अंदर ही नहीं होता।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

बुखार के मौसम में...

जिस तरह परीक्षा के मौसम में छात्र, अभी दिमागी बुखार से तप रहे हैं, कुछ ऐसा ही देश-दुनिया में विश्वकप क्रिकेट का खुमारी बुखार छाया हुआ है। इन बुखारों के मौसम में शायद ही कोई बच पा रहा है और हर कोई किसी न किसी तरह से मानसिक तौर पर बुखार की चपेट में है। क्रिकेट की खुमारी तो ऐसी छाई है, जिससे सटोरियों की चल निकली है तथा वे हर गंेद व रन पर मौज कर रहे हैं। हालात यह है कि वे खाईवाली मैदान में नोटों की गड्डी की गरमाहट से तप रहे हैं। बेचारी तो देश की जनता है, जो न तो कुछ बोल सकती है और न ही हुक्मरानों को इनकी फिक्र है ? जनता के भोलेपन तथा सहनशीलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश में भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार हो रहे हैं और देश की करोड़ों जनता चुप बैठी है ? फिलहाल आम जनता केवल एक ही बुखार से तप रही है और वो है, महंगाई। क्या करें, गरीबों के हिस्से में जैसे लिखा हुआ है कि कम कमाओ-कम खाओ ? और बदहाली में जीना सीख जाओ।

देश के प्रति समर्पण की भावना हमारी और क्या हो सकती है, कोई कुछ भी करते रहें और हम चुप बैठे रहें, देश लुट रहा है तो लूटने दो ? भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार हो और रोज घपलेबाज व घोटालेबाज पैदा हों। गरीबों को दो जून की रोटी के सिवाय और क्या चाहिए ? छोटा सा पेट भरने के लिए रोजी-मजदूरी ही भाग्य में है। गरीबों के हिस्से में पसीना बहाना ही लिखा है ? नोट कमाना तथा नोटों की गरमी का अहसास, केवल मोटी चमड़ी व बड़े पेट वाले भ्रष्टाचारियों को होता है, तभी तो सीने में नोट लादकर रखने की आदत इन जैसों को ही है। भला, कोई आम व्यक्ति नोटों की गरमाहट सहन कर सकता है ? वह तो बरसों से ऐसे ही गरीबी के बुखार से तप रहा है। जिस बीमारी का न तो इलाज अब तक ढूंढा जा सका है और न ही इस दर्द की कोई दवा तलाशी जा सकी है। हर बार सरकार यही कहती है कि गरीबी खत्म कर दी जाएगी, लेकिन गरीब तो आज भी वहीं हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों का बोलबोला है और दिन-दूना, रात चौगुना कर मालदार भट्ठी के मालिक बन बैठे हैं।


देश के दगाबाज कब जनता की गाढ़ी कमाई हथिया, सफेदपोश नामचीन बनकर गरीबों का खून चूस लेता है और देश भ्रष्टाचार के बुखार में तप रहा है। यह बीमारी संक्रामक होती जा रही है। आने वाला समय और फिर भयावह हो सकता है, क्योंकि गरीबी हटाने की दवा अब तक नहीं खोजी जा सकी है, कुछ ऐसा ही हाल भ्रष्टाचार का भी है। शायद, भ्रष्टाचारी व घपलेबाज भी इस बात को समझ रहे हैं, तभी तो घटिया करतूत से बाज आने का नाम नहीं ले रहे हैं। भ्रष्टाचारी, दीमक की तरह देश को चाट रहे हैं और हम टकटकी लगाए देख रहे हैं। इस तरह आम जनता गरीबी व महंगाई की आग में तप व जल रही हैं। यही तो है देश में बेमौसम बुखार का, न उतरने वाला तपन।

मंगलवार, 8 मार्च 2011

धनपशु का पुरस्कार

देश में अलग-अलग विधाओं व उपलब्धियों पर पुरस्कार दिए जाने की परिपाटी है। इन पुरस्कारों के लिए चुनिंदा नाम पर मुहर लगती है, मगर भ्रष्टाचार के दानव के मुखर होने के बाद इन दिनों मैं सोच रहा हूं कि देश में एक और पुरस्कार दिए जाने की जरूरत है और वो है, धनपशु पुरस्कार। देश में एक-एक कर भ्रष्टाचार की हांडी फूट रही है और टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला तथा इसरो घोटाला के भ्रष्टाचार लोक से धनपशुओं का पदार्पण हो रहा है। भ्रष्टाचार कर देश को खोखला करने वाले ऐसे धनपशुओं को निश्चित ही पुरस्कार मिलना चाहिए, क्योंकि ऐसी करतूत, भला कोई आम जनता करने की हिम्मत जुटा सकती है ?

अब धनपशुओं की वेरायटी तैयार होने लगी है, क्योंकि देश की अन्य पुरस्कार की तरह यहां चुनिंदा हुनरमंद की कमी नहीं है। धनपशुओं के सम्मान किसे दें, इस पर भी अब बहस शुरू हो सकती है। देश को जिसने ज्यादा लूटा, वही इस धनपशु पुरस्कार वाजिब हकदार हो सकता है। ऐसे में यहां भी किसी एक नाम पर सहमति बनना मुश्किल है, क्योंकि देश में एक से बढ़कर एक, घोटालेबाज व भ्रष्टाचारी हैं और इस भ्रष्टाचारी लोक से ऐसे-ऐसे धनपशु बाहर आ रहे हैं, जिनकी तिजोरियों में नोट, इस तरह भरे पड़े मिल रहे हैं, जैसे कोई रद्दी कागज को कहीं भी फेंक देता है। ऐसी कई परिस्थिति बन रही है, जिससे यह पहचान करना टेढ़ी खीर साबित हो रही है कि देश में आखिर सबसे बड़ा धनपशु कौन है ? धनपशु पुरस्कार के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा मच गई है।


मैं भी कई दिनों से सिर खपा रहा हूं कि जब धनपशु पुरस्कार दिया जाना शुरू किया जाएगा तो इस पुरस्कार का पहला हकदार कौन होगा ? मैंने विचार किया, क्यों न, मधु कोड़ा का नाम तय किया जाए, इसके बाद मुझे ख्याल आया कि देश में और भी नाम हैं, जैसे- ए. राजा, सुरेश कलमाड़ी। इन नामों पर मैं विचार कर ही रहा था कि इसरो घोटाले की धमक शुरू हो गई और एक बड़ा धनपशु का काला चेहरा सामने आ गया। देश के भ्रष्टाचार लोक में धनपशुओं का जैसा जमावड़ा शुरू हो गया है और एक नाम को देश की जनता ठीक से समझ पाती है, वैसे ही एक और बड़ा नाम धनपशु बनकर उभरता है। यही कारण है कि मैं लगातार सोच रहा हूं और यह तय करने कोशिश कर रहा हंू कि आखिर कौन हो सकता है, धनपशु पुरस्कार का वाजिब हकदार। आज हालात ऐसे दिखाई दे रहे हैं, जैसे इस पुरस्कार के चर्चा शुरू होने के बाद धनपशुओं में होड़ मच गई है। लगता है कि अभी धनपशु पुरस्कार के लिए और समय-सीमा बढ़ानी पड़ सकती है, क्योंकि कई नाम कतार में खड़े नजर आ रहे हैं। अब आप ही बताएं कि किसे दें, धनपशु पुरस्कार ?