रविवार, 29 जनवरी 2012

घोषणा ही तो है...

मैं बचपन से हीघोषणाके बारे में सुनते रहा हूं, परंतु यह पूरे होते हैं, पता नहीं। इतना समझ में आता है किघोषणाइसलिए किए जाते हैं कि उसे पूरे करने का झंझट ही नहीं रहता। चुनावी घोषणा की बिसात ही अलग है। चुनाव के समय जो मन में आए, घोषणा कर दो। ये अलग बात है कि उसे कुछ ही दिनों में भूल जाओ। जो याद कराने पहुंचे, उसे भी गरियाने लगो। यही तो है, ‘घोषणाकी अमर कहानी। नेताओं की जुबान पर घोषणा खूब शोभा देती है और उन्हें खूब रास आती है। यही कारण है कि वे जहां भी जाते हैं, वहांघोषणा की फूलझड़ीफोड़ने से बाज नहीं आते। लोगों को भी घोषणा की दरकार रहती है और नेताओं से वे आस लगाए बैठे रहते हैं कि आखिर उनके चहेते नेता, कितने की घोषणा फरमाएंगे।
बिना घोषणा के कुछ होता भी नहीं है। जैसे किसी शुभ कार्य के पहले पूजा-अर्चना जरूरी मानी जाती है, वैसे ही हर कार्यक्रम तथा चुनावी मौसम में ‘घोषणा’ अहम मानी जाती है। तभी तो हमारे नेता चुनावी ‘घोषणा पत्र’ में दावे करते हैं कि उन्हें पांच साल के लिए जिताओ, वे गरीबों की ‘गरीबी’ दूर कर देंगे। न जाने, और क्या-क्या। लुभावने वादे की चिंता नेताओं को नहीं रहती, बल्कि गरीब लोगों की चिंता बढ़ जाती है। वे गरीबी में पैदा होते हैं और गरीबी में मर जाते हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक केवल घोषणा का शंखनाद सुनाई देते हैं। चुनाव के दौरान घोषणा का दमखम देखने लायक रहता है। नेता से लेकर हर कोई घोषणा की लहर में हिलारें मारने लगता है, क्योंकि ‘घोषणा’ ऐसी है भी।
मन में जो न सोचा हो, वह घोषणा से पूरी हो जाती है। घोषणा की बातों का लाभ न भी मिले, तो सुनकर मन को तसल्ली मिल जाती है। गरीबों की गरीबी दूर करने की घोषणा चुनाव के समय होती है, लेकिन यह सभी जानते हैं कि गरीब, सत्ता व सरकार से हमेशा दूर रहे और गरीबी के आगे नतमस्तक होकर गरीब ही घोषणा के पीछे गुम होते जा रहे हैं।
अभी उत्तरप्रदेश समेत अन्य राज्यों में चुनावी सरगर्मी तेज है। हर दल के नेता ‘घोषणा’ पर घोषणा किए जा रहे हैं। सब के अपने दावे हैं। घोषणा में कोई छात्रों की सुध ले रहा है, किसी में गरीबों की धुन सवार है। कुछ आरक्षण के जादू की छड़ी घुमाने में लगा है। जो भी हो, घोषणा ऐसी-ऐसी है, जिसे नेता कैसे पूरी करेंगे, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी से समझ में आता है कि घोषणा का मर्ज जनता के पास नहीं है। लैपटॉप के बारे में छात्रों को पता न हो, मगर नेताओं ने जैसे ठान रखे हैं, चाहे तो फेंक दो, घर में धूल खाते पड़े रहे, कुछ दिनों बाद काम न आ सके, किन्तु वे लैपटॉप देकर रहेंगे। शहर में रहने वाले ‘गाय’ न पाल सकें, लेकिन वे घोषणा के तहत गाय देंगे ही। ये अलग बात है कि उसकी दूध देने की गारंटी न हो और उसके स्वास्थ्य का भी। नेताओं की घोषणा भी ‘गाय’ की तरह होती है, एकदम सीधी व सरल। सुनने में घोषणा, किसी मधुर संगीत से कम नहीं होती, लेकिन पांच साल के बीतते-बीतते, यह ध्वनि करकस हो जाती है।
नेताओं को भी घोषणा याद नहीं रहती। वैसे भी नेताओं की याददास्त इस मामले में कमजोर ही मानी जाती है। जब खुद के हक तथा फंड में बढ़ोतरी की बात हो, वे इतिहास गिनाने से नहीं चूकते। घोषणा की यही खासियत है कि जितना चाहो, करते जाओ, क्योंकि घोषणा, पूरे करने के लिए नहीं होते, वह केवल दिखावे के लिए होती है कि जनता की नेताओं की कितनी चिंता है। घोषणा के बाद यदि नेता चिंता करने लगे तो जनता की तरह वे भी ‘चिता’ की बलिवेदी पर होंगे। घोषणा की परवाह नहीं करते, तभी तो पद मिलते ही कुछ बरसों में दुबरा जाते हैं। जनता को भी पांच साल होते-होते समझ में आती है कि आखिर ये सब जुबानी, घोषणा ही तो है... ?

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

क्रिकेट के नायक और खलनायक

इतना तो है, जब हम अच्छा करते हैं तो नायक होते हैं। नायक का पात्र ही लोगों को रिझाने वाला होता है। जब नायक के दिन फिरे रहते हैं तो उन पर ऊंगली नहीं उठती और जो लोग ऊंगली उठाते हैं, उनकी ऊंगली, उनके चाहने वाले तोड़ देते हैं। नायक की दास्तान अभी की नहीं है, बरसों से ऐसा ही चला आ रहा है। जब तक आप नायक हो, कोई कुछ नहीं कहेगा, साथ ही कहने वाले की खटिया खड़ी हो जाती है।
भारतीय क्रिकेट में भी इन दिनों चाहने वालों की नजर में ही उनके नायक, खलनायक बन बैठे हैं। बल्लेबाजों के एक बेहतरीन शॉट देखने वाले आंखफोड़ाऊ दर्शक भी टीवी के सामने से गायब है। कई तो टीवी सेट फोड़ बैठे हैं। जाहिर सी बात है कि जब टीवी तोड़ेंगे तो उनके नायक सहयोग के लिए आएंगे नहीं। इस तरह अपनी किस्मत भी फोड़ी जा रही हैं। वैसे में और भी मुश्किल है, जब नायक, खलनायक बन बैठा हो। आस्ट्रेलिया में जिस तरह भारतीय क्रिकेट व खिलाड़ियों की किरकिरी हो रही है और दमखम रखने वाले बल्लेबाजों की काबिलियत पर सवाल खड़े हो रहे हैं। इस बीच ऊंगली तोड़ने वाले ही ‘ऊंगली’ उठाने लगे तो फिर...।
ऐसे में मुझ जैसे क्रिकेट के प्रशंसक को भी दुख हो रहा है, लेकिन मैं सोच भी रहा हूं कि कुछ समय के अंतराल में कैसे, कोई ‘भगवान’ से ‘शैतान’ बन जाता है ? क्रिकेट के ‘भगवान’ भी खलनायक माने जा रहे हैं। ‘दीवार’ में भी दरारें पड़ने की बात कही जा रही है। ‘वेरी-वेरी स्पेशल’ को खस्ताहाल कहा जा रहा है। ‘मिस्टर कुल’, का ठंडे में भी तापमान गिर गया है। फैंस, क्रिकेट के ‘सरताज’ के सिर से ‘ताज’ उतारने पर आमादा है। ऐसा हाल, मैंने कई बार देखा है कि खिलाड़ियों को नायक बनाकर फिदा हुए जाते हैं, फिर खलनायक बनाकर पुतले जलाए जाते हैं और पोस्टर फाड़े जाते हैं।
हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि इन्हीं नायकों ने कई उपलब्धियां दिलाई हैं, वर्ल्ड कप जिताएं हैं और न जाने कितनी बार विदेशी जमीं पर बादशाहत साबित की हैं। रिकार्ड पर रिकार्ड बनाए हैं, यह क्या कम है, हमारे लिए। देश का नाम रौशन करने में कोई कोताही नहीं बरती। इस स्थिति में हमें नायकों के दुख की घड़ी में साथ होना चाहिए।
देश के क्रिकेट फैंस को क्या हो गया है, जो ‘बूढे़ शेरों’ को बल देने के बजाय पीछे हो जा रहे हैं। मेरी नजर में यह बिल्कुल गलत है। जब हालात ‘भगवान’ के खराब चल रहे हैं तो उनके साथ हमें होना चाहिए। ये अलग बात है कि हम अधिकतर कहते रहते हैं कि ‘भगवान’ हमारे साथ हमेशा होते हैं, मगर अभी स्थिति ऐसी है कि हमें ‘भगवान’ के साथ खड़ा रहना है। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि यही खिलाड़ी अपना बल्ला घुमाते थे तो हम खाना भूल जाते थे। जब ये हारते हैं तो हम रोते हैं। यहां तक गुस्से में टीवी सेट को फोड़ डालते हैं। क्रिकेट के चक्कर में बीवी से अनबन हो जाती है। उनके कारण बरसों से ‘फैंस’ दुबले हुए जा रहे हैं। फिर भी वे नायक, आज खलनायक बन बैठे हैं। हमें विचार करना चाहिए, कहीं हम गलत तो नहीं ? हम भाग्य पर विश्वास करते हैं, जरूर उनका ‘भाग्य’ साथ नहीं होगा। नहीं तो मजाल, कोई हमारे दमदार खिलाड़ियों को आऊट करके दिखाए। वे मैदान में उतने ही चिपके रहते हैं, जितना बरसों से टीम में चिपके हुए हैं।
क्रिकेट के ‘भगवान’ का महाशतक देखने के लिए आंखें पथरा गई हैं। महीनों से एक ही धुन सवार है कि कब ‘भगवान’ अपने बल्ले से ‘एक शतक’ टपकाएंगे, लेकिन ‘शतक का रस’ बल्ले की शाखाओं से टपक ही नहीं रहा है। अब क्या कहें... उन्हें जो समझ लें...।