सोमवार, 28 नवंबर 2011

जूते और थप्पड़ का कमाल

जूता, जितना भी महंगा हो, हम सब की नजर में मामूली ही होता है और उसकी कीमत कुछ नहीं होती। जूता चाहे विदेश से भी खरीदकर लाया गया हो, फिर भी उसे सिर पर तो पहना जाता है और ही रखा जाता है। जूते तो बस, पैर के लिए ही बने हैं। जैसे, ओहदेदार लोगों के लिए कुछ लोग जूते के समान होते हैं, वैसे भी जूते का वजन, कहां कोई तौलता है। अभी देश में खास किस्म के जूते कभी-कभी नजर जाते हैं, जिनकी अहमियत के साथ पूछपरख भी होती है। यह जूते भी उतना ही मामूली होते हैं, जितना बाजार में मिलने वाले जूते। ऐसे कुछ जूतों की खासियत होती हैं कि उसकी पहचान, कुछ विशेष लोगों से जुड़ जाती हैं। जूते की प्रसिद्धि इसकदर बढ़ जाती है, जिसके सामने नामी-गिरामी कंपनी के जूते भी बौने साबित होते हैं।
पहली बार जब विदेशी धरती पर जूता उछला, उसके बाद जूते, जूते नहीं रहे, बल्कि रातों-रात ही यह ऐसे महान वस्तु बन गया, जिसका अब तक किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। मीडिया ने तो जूते की महिमा ही बढ़ा दी। जूता उछलने के बाद इस तरह महिमामंडन किया गया, उसके बाद जूता, जूता नहीं रहा। अब तो जूते का धमाका हर कहीं होने लगा है। जूते की खुमारी ऐसी छाई कि हमारे देश मंे एक नहीं, बल्कि कई जूते उछाले गए व फेंके गए। देखिए, जूते जमाने से मामूली माने जाते रहे हैं, उछालने वाला भी मामूली व्यक्ति होता है, लेकिन जिन पर उछाला जाता है, वह नामचीन होते हैं। जूते के साथ ही मीडिया की मेहरबानी से वे व्यक्ति भी दिन-दूनी, रात-चौगनी की तर्ज पर इतना नाम कमा लेते हैं, जिसके बाद उन जैसों का नाम जुबानी याद हो जाता है। इस तरह वह ‘जूता वाला बाबा’ साबित होते हैं।
जूते की कहानी तो सुन ही रहे थे, जब थप्पड़ की धुन चल रही है। किसी को एक थप्पड़ पड़ी नहीं कि दूसरा कहता है, बस एक ही...। थप्पड़ का दर्द वही जान सकता है, जिसने महसूस किया हो। जिस तरह महंगाई का दर्द आम जनता सहती है, मगर उसका अहसास कहां किसी को होता है ? गरीब, गरीबी में मरता है और उसकी आने वाली पीढ़ी भी बरसों सिसकती रहती है। कई तरह की मार गरीब भी खाते हैं, भ्रष्टाचार व महंगाई की मार ने तो लोगों का जीना ही हराम कर दिया है। इतना जरूर है कि आम जनता, थप्पड़ का दर्द को नहीं जानती, क्योंकि वह पहले से ही गरीबी, महंगाई से कराहती रहती है, उसके बाद दर्द बढ़ने का पता कहां चल सकता है ?, दर्द सहने की आदत जो बन गई है।
जिन्ने कभी दर्द ही नहीं सहा हो, वह जान सकता है कि वास्तव में किसी तरह की मार की पीड़ा क्या होती है ?
देश में पहले जूते का शुरूर सवार था, अब थप्पड़ ने अपनी खूब पैठ जमा ली है। जनता भी थप्पड़ की धमक को हाथों-हाथ ले रही है। जूते व थप्पड़ का कमाल ऐसा चल पड़ा है कि महंगाई व भ्रष्टाचार की मार का दर्द भी सुन्न पड़ गया है। अब क्या करें, माहौल ही ऐसा बन गया है, जहां केवल जूते व थप्पड़ के ही चर्चे हैं।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

सरकारी नौकरी की सोच

अभी हाल ही में मेरा एक मित्र मिल गया। उनसे काफी अरसे से भेंट नहीं हो पाई थी। जब उनका हालचाल पूछा तो बेरोजगारी का दर्द उनके चेहरे पर गया और उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी की चाहत, ऐसे बताया कि मेरा भी दिल पसीज गया, क्योंकि मैं भी बेरोजगारी की मार झेल रहा हूं। ये अलग बात है कि लिख्खास बनकर बेरोजगारी का दर्द जरूर मेरा कम हो गया है, लेकिन मेरे मित्र के हालात कुछ और ही थे।
खुद के बारे में बताने के बाद और बताया कि उन्होंने रोजी-रोटी के लिए एक छोटा व्यवसाय शुरू किया है, किन्तु वह भी उधारी की मार से दो-चार हो रहा है और गरीबी से वह खुद। जब परिवार की बारी आई तो बताया कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई हो रही है। मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा कि बच्चे गांव में ही पढ़ते हैं, तो उनका जवाब था, नहीं। बच्चे तो 20 किमी दूर इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने जाते हैं। मैंने प्रतिप्रश्न करते हुए पूछा कि क्यों भाई, गांव में सरकारी स्कूल नहीं है ? उसने बताया, स्कूल तो है, मगर...। उनके मगर का अर्थ मुझे समझ में आ गया।
मैंने गांवों में स्वास्थ्य के हालात देखे हैं, तो सोचा कि पूछ तो लूं, वहां स्वास्थ्य व्यवस्था का क्या हाल है ? मेरे मित्र ने बड़े ही गर्व से बताया कि गांव में कहां की स्वास्थ्य व्यवस्था, निजी क्लीनिकों जैसी सुविधा, सरकारी अस्पतालों में कहां होती है, हम थोड़े ही एैरे-गैरे अस्पतालों में इलाज कराने जाएंगे।
अब तो मेरी जिज्ञासा और बढ़ती गई। सोचा, जब नौकरी नहीं है तो आमदनी क्या होगी, यह बात मैंने पूछ ही डाली। मेरे मित्र ने बताया कि चाहिए तो सरकारी नौकरी, उसकी अपने मजे हैं। सोचा, अभी कुछ नहीं है तो छोटा व्यवसाय करके ही आमदनी जुटाई जाए। बचत के बारे में पूछा तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया, हां, प्राइवेट बैंक में खाते हैं ना। उसमें ठीक-ठाक बैंक-बैलेंस है, उससे भी व्याज के तौर पर मुनाफा हो जाता है। यहां भी मुझसे रहा नहीं गया कि आपके शहर में सरकारी बैंक नहीं है, तो वे बोले, हैं ना, मगर...। यहां भी मैं, उनके मगर का अर्थ समझ गया।
बाद में जब मैंने उनसे यह कहा कि जब आप हर कहीं निजी स्कूल, अस्पताल तथा बैंक और न जाने क्या-क्या... में सुविधा लेते हैं और सरकारी सुविधाओं को कोसते हैं ? बावजूद, आप सरकारी नौकरी के पीछे क्यों पड़े हैं ? मेरे इस सवाल के बाद उसने मुझे जो जवाब दिया, उससे तो मेरे कान ही खड़े रह गए। मित्र बोले, सरकारी नौकरी में फायदे ही फायदे हैं। जितना मन किया काम करो, कभी दफ्तर भी नहीं गए तो कोई पूछने वाला नहीं। 5 तारीख हुए नहीं कि वेतन बैंक खाते में आ जाते हैं।
उन्होंने ऐसे अनगिनत लाभ गिनाए, जिसके बाद मुझसे रहा नहीं गया और अब मुझे भी लगा कि सरकारी नौकरी के फायदे आजमाने के लिए कुछ भी कर गुजरूंगा। मैं भी सोचने लगा कि इतना पढ़ने के बाद, केवल कलम घींसने से कुछ फायदे होने वाले नहीं है। यहां कोल्हू के बैल की तरह रगड़ाओ और फायदा, उसके विपरित चवन्नी भी नहीं। इससे तो अच्छा है, सरकारी नौकरी, जहां आम के आम और गुठलियों के दाम मिलते हैं, मतलब, जब काम किए तब भी वेतन, नहीं किए तब भी वेतन। कौन कितना काम रहा है, कोई देखने वाला नहीं रहता। जो मन में आए, वो करो। कभी कोई एकाध नोटिस मिल जाए, उसे डाल दो, रद्दी की टोकरी में और हो जाओ, दफ्तर से नौ-दो ग्यारह। भला, कौन है, जो सरकारी नौकरी और सरकारी नौकर का कुछ भी बिगाड़ सकता है। मेरे मित्र ने भी दोहराया कि चाहे जो भी हो जाए, लेकिन चाहिए तो बस, सरकारी नौकरी ?

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

महंगाई की चिता

हम अधिकतर कहते-सुनते रहते हैं कि चिंता चिता में महज एक बिंदु का फर्क है। देश की करोड़ों गरीब जनता, महंगाई की आग में जल रही है और उन्हें चिंता खाई जा रही है। वे इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। महंगाई के कारण ही कुपोषण ने भी उन्हें घेर लिया है। जैसे वे गरीबी से जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वैसे ही महंगाई के कारण गरीब, हालात से लड़ रहे हैं। महंगाई की चिंता अब उनकीचिताबनने लगी है। वैसे मरने के बाद ही हर किसी को चिता में लेटना पड़ता है और जीवन से रूखसत होना पड़ता है। महंगाई ने इस बात को धता बता दिया है और लोगों को जीते-जी मरने के लिए मजबूर हैं।
‘महंगाई की चिता’ में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब गरीबों को लेटना नहीं पड़ता। गरीबी की मार झेल रहे गरीब, बरसों से ऐसे ही मुश्किल में थे, उपर से महंगाई की मार से जीवन-मरण का ले-आउट तैयार हो गया है। गरीब पहले गरीबी से त्रस्त हुआ करते थे, अब उनका एक और दुश्मन पैदा हो गई है, वह है महंगाई डायन। कहा जाता है कि डायन भी एक घर छोड़कर हाथ आजमाती है, लेकिन यहां तो उल्टा ही हो रहा है। महंगाई डायन की मार से कोई घर अछूता नहीं है। हर कहीं इसका साया मंडरा रहा है।
महंगाई ने जैसे सरकार को जकड़ ही रखी है और वह उसकी जद से बाहर ही नहीं आ पा रही है। सरकार की करनी को जनता भोग रही है और जनता को सरकार सात नाच नचा रही है, कुछ वैसा ही, जैसे महंगाई, सरकार की नाक में दम कर उसके माथे पर नाचते हुए इतराती है। महंगाई बढ़ते ही सरकारी बेचारी बन जाती है और महंगाई डायन। इस बीच सबसे ज्यादा कोई चिंतित होता है तो वह देश की करोड़ों गरीब भूखे-नंगे लोग। जिन्हें दो जून की रोटी के लिए ‘योजना आयोग’ के मोंटेक बाबू की ओर टकटकी लगाए बैठने पड़ते हैं। वे जिन्हें गरीब कह दें, वह गरीब। वे गरीबों को रातों-रात कागजों में अमीर बनाने की पूरी क्षमता रखते हैं, इसलिए गरीबों का गरीबी से अब 36 का नहीं, बल्कि 26 व 32 का आंकड़ा हो गया है।
जब भी गरीबी का दुखड़ा रोते हुए गरीब लाचारी दिखाता है, इस बीच महंगाई आ धमकती है। सरकार को हर समय धमकाती ही रहती है, जनता के जख्मों को कुरेदने का भी काम करती है। जब भी आती है, कयामत बनकर आती है। गरीबी के झटके सहने, देश की जनता आदी हो चुकी है, लेकिन महंगाई के करंट सहने की ताकत अब उनमें बाकी नहीं है। पिछले एक दशक से महंगाई की मार से जनता पूरी तरह पस्त हो चुकी है। जब सरकार की सारी ताकत फेल हो जा रही है, हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नतमस्तक नजर आ रहे हैं, ऐसे हालात में अनपढ़ व गरीब जनता का क्या मजाल कि वे महंगाई जैसी डायन के आगे ठहर सकेगी ? यही कारण है कि ‘महंगाई की चिता’ में करोड़ों जनता घुट-घुटकर रोज मर रही हैं और जब उफ कहने की बारी आती है तो जुबान को ‘महंगाई की चिंता’ रोक लेती है।
महंगाई के कारण जनता न जाने हर दिन कितनी मौत मरती है, बाजार जाते ही वस्तुओं के दाम सुनते ही हर समय उन्हें नरक के दर्शन होते हैं। एकाएक ऐसा नजारा हो जाता है, जैसे केवल हाड़-मांस ही खड़ा हो। जनता का खून महंगाई इस तरह चूस रही है, जैसे सत्ता के मद चूर कारिंदे, गरीबों का खून बरसों से चूसते आ रहे हैं। अब बेचारी जनता क्या कर सकती है, बस ‘महंगाई की चिता’ में लेटी है और उसकी आग उसे न चाहने पर भी जलाए जा रही है। गरीबों का शरीर भले ही नहीं जल रहा है, लेकिन कलेजे रोज अनगिनत बार छलनी होते हैं। क्या करें, जब किस्मत में ही महंगाई के कारण जिंदा मरना लिखा है।

बुधवार, 2 नवंबर 2011

राहुल जी को भी आता है गुस्सा

मुझे अभी-अभी पता चला कि हमारे भावी प्रधानमंत्री कहे जाने वाले युवराज को भी गुस्सा आता है। इससे पहले मैं तो इतना ही जानता था कि वे शांत सौम्य व्यक्तित्व के धनी हैं। उनमें कई खूबियां हैं, वे गरीबों के घर भोजन करने से परहेज नहीं करते। गरीबों की दाल-रोटी उन्हें खूब रास आती हैं, उनके बच्चे बड़े प्यारे लगते हैं। तभी, कभी भूखे-नंगे बच्चे उनकी गोद की शान बनते हैं तो हमेशा मुरझाया चेहरा, उनके साथ होते ही उमंग में हिलोरे मारने लगता है।
बच्चों को भी उनकी दुलार हमेशा याद आती है। यह स्वाभाविक भी है, उनके जैसी सेलिब्रिटी यदि किसी को छू भी ले तो वह रातों-रात कहां से कहां पहुंच जाता है। इतना जरूर है कि सब कुछ हो सकता है, किन्तु गरीबी दूर नहीं हो सकती। वे पचास साल पहले जहां थे, वहीं रहेंगे। थोड़े समय के लिए सेलिब्रिटी की गोद में उचकने भर से गरीबी पीछे नहीं छोड़ने वाली। गरीबों से उसका नाता जनमो-जनम का है। ऐसा नहीं होता तो हमारे युवराज के माध्यम से जिन्हें पहचान मिली, उनकी गरीबी छू-मंतर हो गई होती। गरीबी जितनी बेचारी होती है, उतने ही गरीब भी बेचारे होते हैं। वे बलि के बकरे बनते रहते हैं, गला काटने के लिए ओहदेदार हर पल लगे रहते हैं। थोड़ा भी फड़फड़ाए तो पर कतर देते हैं। अंततः गरीबी व गरीब, जहां के तहां खड़े रहते हैं और सेलिब्रिटी का आना-जाना लगा रहता है।
अब अपन मुख्य मुद्दे पर आते हैं कि युवराज कहे जाने वाले राहुल जी ने अपने दिल की गहराई में छुपी बात, अब जाकर बताई है। उन्हें राजनीति में पदार्पण किए करीब दशक भर का समय हो गया है, लेकिन उन्होंने गुस्से की बात कभी नहीं की। किसानों के हितों के लिए वे पदयात्रों पर निकल पड़ते हैं, भूखे-नंगे लोगों के बीच कई दिन गुजारते हैं, देश के अलग-अलग इलाकों के छात्रों से मिलते हैं और उनके विचार जानते हैं, यहां उन्हें कई कड़वे सवाल का सामना करना पड़ता है, फिर भी वे शांत रहते हैं। उन्हें गुस्सा नहीं आता। एक नेता उन्हें ‘बछड़ा’ तक कह देता है, उनकी ही पार्टी की एक नेत्री उनकी काबिलियत पर सवाल खड़ी करती हैं। इसके बाद भी राहुल जी उस रीति पर बने नजर आते हैं, जिसके तहत यदि कोई आप पर जितना भी कीचड़ उछाले, शांत बने रहो। कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा जड़े तो दूसरा गाल आगे कर दो।
हमारे युवराज ने अपने गुस्से की बात तब कही, जब वे देश के सबसे बडे़ राज्य उत्तरप्रदेश पहुंचे थे। यहां सियासी भंवर तेजी से करवट ले रहा है, क्योंकि चुनाव जो नजदीक है। चुनावी वैतरणी पार लगाना है तो गरीब का हित चिंतक बनना लाजिमी है। अब राहुल जी को कौन समझाए कि यही उत्तरप्रदेश हैं, जहां आपकी ही सरकार बरसों तक जमी रही और और आपके लोगों की एकतरफा चली। उस समय तो विपक्षी नाम की कोई चिड़िया भी होती थी, यह कहना केवल लफ्फाजी होगी। आपके लोग जो कर देते तथा कह देते, वहीं अंतिम होता था। पहले गरीबों के भाग्य विधाता, आपके लोग ही थे। गरीबों की बेबसी व लाचारगी पर आंसू बहाना ठीक है, लेकिन जैसी आपकी छवि उभरकर आई है, वह दिखे तो ठीक नहीं तो फिर ऐसा गुस्सा किस काम का ?
राहुल जी, आपको किसानों के दर्द देखकर अब गुस्सा आने लगा है। निश्चित ही आप उन राज्यों के किसानों के दर्द को महसूस करिए, जहां आपकी अपनी सरकार है। जहां आपकी चलती है, जरा वहां किसानों की तकलीफों को मिनटों में हल कीजिए ? मैं आपके दर्द को समझ सकता हूं, क्योंकि मैं भी किसान का बेटा हूं। जब आप किसानों के हितों की बात करते हैं, मुझे बहुत खुशी होती है, किन्तु जब दोमुंही बातें होती हैं, तब मैं सोचने लगता हूं कि क्या देश के किसान व गरीब दो पाटों में पीसने के लिए ही बने हैं ? आप गुस्सा करिए, इसमें हम जैसों को कोई आपत्ति नहीं, मगर यह गुस्सा समग्र करें तो आप जैसे शांत मनोभाव के लिए ठीक है और देश की शांत अवाम के लिए भी। अचानक आपका गुस्सा सामने आया है, इससे रोकिए मत। कभी न कभी तो यह गुस्सा फूटकर बाहर आएगा ही और आप जैसा चाहते हैं, वैसा होकर रहेगा। बस, लगे रहिए।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

किसे कराएं पीएचडी

मुझे पता है कि देश में संभवतः कोई विषय ऐसा नहीं होगा, जिस पर अब तक पीएचडी ( डॉक्टर ऑफ फिलास्फी ) नहीं हुई होगी। कई विषय तो ऐसे हैं, जिसे रगडे पर रगड़े जा रहे हैं। कुछ समाज के काम रहे हैं तो कुछ कचरे की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। ये अलग बात है कि कुछ विषय ही इतने भाग्यशाली हैं कि उसे जो भी अपनाता है, वह बुलंदी छू लेता है। पीएचडी के लिए मुझे लगता है कि आपमें विषय चयन की काबिलियत होनी चाहिए, उसके बाद फिक्र करने की जरूरत नहीं होती। विषय तय होने के बाद सामग्रियां जहां-तहां से मिल ही जाती हैं, फिर थमा दो पीएचडी का गठरा। एक बार खुलने के बाद कब खुलेगा, इसका भले ही पता हो।
चलिए छोड़िए पीएचडी की अंदरूनी कहानी को। अब हम फोकस उस बात पर करते हैं, जिस पर अब तक किसी ने पीएचडी नहीं की है और न ही उस व्यक्ति का चयन किया गया है, जिसके नाम पर पीएचडी की जा सकती है। दरअसल, वो विषय है, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी। देश में कला, विज्ञान, अंतरिक्ष के अलावा ढेरों विषयों पर अनगिनत पीएचडी हो चुकी हैं, इसलिए अब इस फेहरिस्त में एक ऐसे विषय को शामिल किया जाना चाहिए, जो आज हर जुबान पर छाया हुआ है और देश की बिगड़ती आर्थिक व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। यही तो हैं जो हरे-हरे, करारे नोट को काला बनाने में तूले हैं।
इतना तो मैं जानता हूं कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की जमात को सरकार नहीं समझ पा रही है और उसकी सुरंग को खोजने में अक्षम व पंगु भी बन बैठी है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों पर पीएचडी कर पाना मुश्किल है, मगर यह बात भी सही है कि पीएचडी के लिए विषय का चयन बहुत मायने रखता है। इसके लिए उन विषयों को प्राथमिकता दी जाती है, जो अनछुआ हो। ऐसे में मेरा मानना है कि ऐसा विषय फिलहाल नहीं मिलने वाला है, क्योंकि जिसके आगे सब कराह रहे हों ( भले ही भ्रष्टाचारी मौज करे और भ्रष्टाचार इतराये )।
अब सवाल उठता है कि इस कठिन विषय पर पीएचडी कौन करेगा और भ्रष्टाचारियों की फेहरिस्त भी धीरे-धीरे लंबी होती जा रही है, इसलिए पहला नाम कौन सा होगा, जिस पर पीएचडी केन्द्रीत हो। भ्रष्टाचार, जिस तरह जनता के सामने इतराता है, वैसे ही पीएचडी के लिए आतुर खड़ा रहेगा, लेकिन भ्रष्टाचारी कतार में आए, तब ना। जो भी हो, अब इस विषय में पीएचडी के लिए देरी नहीं होनी चाहिए। नाम चाहे किसी का भी तय हो, किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भ्रष्टाचार करने भ्रष्टाचारियों में प्रतिस्पर्धा दिखाई जरूर देती हो, किन्तु जो नाम सबसे उपर है, वही इसका पहला हकदार बनना चाहिए। उसके बाद जैसे अन्य विषयों में ध्यान केन्द्रीत किया जाता है, वैसा ही फण्डे पर काम किया जाए। एक पर पीएचडी होने के बाद लाइन में कई लगे हुए हैं, इसलिए विषय से भटकने का सवाल ही नहीं उठता, जैसे अन्य विषयों में हम देखते आ रहे हैं। भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के विषय पर आज जितना जाना-समझा जा सकता है, वह कम ही होगा। इसलिए अब तो हम सब को मिलकर तय करना ही होगा कि आखिर किसे कराएं पीएचडी ?