सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

जहां-तहां अन्नागिरी

समाजसेवी अन्ना हजारे ने पिछले दिनों तेरह दिनों तक अनशन करकेअन्नागिरीको हवा दे दी है। देश में अब तक नेतागिरी, चमचागिरी, बाबागिरी की हवा चल रही थी। अन्नागिरी के हावी होते ही अभी भ्रष्टाचारियों के मूड खराब हो गए हैं, क्योंकि जहां-तहां अन्नागिरी ही छाई हुई है। हर जुबान से बस अन्नागिरी की लार लपक रही है। किसी को अपनी बात मनवानी है तो वह, बस अन्नागिरी करने लग जा रहा है। वैसे हमारे समाजसेवी अन्ना जीअनशनके लिए माहिर माने जाते हैं, लेकिन उनके पीछे जो लोगअन्नागिरीका सहारा लेने लगे हैं, उनका ऐसा कोई अनुभव नहीं है। वे गाहे-बगाहे चल पड़े हैं, अन्नागिरी की राह पर। अन्ना जी जब भी अनशन करते हैं, उन्हें पता है कि जीत उन्हीं की ही होगी, क्योंकि वे अब तक दर्जन भर से अधिक बारअनशनके जादू की झप्पी ले-दे चुके हैं। आधुनिक युग के गांधी के बताए मार्ग पर चलने वालों को पता ही नहीं कि उनकी जैसी जादू की झप्पी कैसे दी जाए। कोशिश हो रही है, अन्नागिरी की कतार में खड़े होने की।
आजादी के पहले गांधी जी उपवास करते थे। मौन व्रत रखते थे। उनका मकसद होता था, देश की जनता को जगाना और अंग्रेजों को भगाना। नए भारत के गांधी कहे जा रहे अन्ना जी, केवल भ्रष्टाचार के भूत के पीछे पड़े हैं। वे जन लोकपाल बिल लाना चाहते हैं। वे खुद कहते हैं, भ्रष्टाचार का भूत, देश के भ्रष्टाचारियों में पूरी तरह से समाया हुआ है और इसे फिलहाल आधे ही दूर किया जा सकता है। भ्रष्टाचार के भूत को भगाने वे ‘अनशन’ का मंत्र भी मार रहे हैं, लेकिन सरकार उन्हें बस बरगलाए जा रही है और भ्रष्टाचार, उनकी आंखों को खटक रहा है।
अन्ना जी जो चाहते हैं, उसके लिए उन्हें कुछ महीने और रूकना पड़ेगा, क्योंकि भ्रष्टाचार की काली छाया के आगे किसी की नहीं चल पा रही है। सरकार की तो घिग्घी बंध गई है। उसे न तो खाते बन रहा है और न ही उगलते। भ्रष्टाचार के साये में आने वालों की फेहरिस्त बढ़ती जा रही है, जो कभी सरकार से कंधे से कंधा मिलाकर चला करते थे। ऐसे भ्रष्टाचारियों को कंधे का साथ तो दूर अब उनसे हाथ मिलाने वाला भी नहीं मिल रहा है, क्योंकि हाथ लगे कालिख को छूने की हिम्मत कैसे जुटाई जा सकती है ? भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हालात बने हैं, वह तो बस अन्नागिरी का ही कमाल है, नहीं तो मजाल है, किसी का बाल-बांका भी होता।
करोड़ों जनता की तरह मैंने भी देखा है कि देश में भ्रष्टाचार कैसे पनपा है और भ्रष्टाचार के आगोश में अनगिनत चेहरे समाए रहे हैं, किन्तु किसी को आंच आ सकी ? वो तो अन्नागिरी की कृपा है, जिसकी बदौलत भ्रष्टाचारियों की करतूतों पर लगाम कसी जा रही है। कुछ दिनों के अंतराल में भ्रष्टाचारियों की एक नई सूची तैयार हो रही है। कई बड़े नाम तिहाड़ की जिंदगी जी रहे हैं। अन्नागिरी से सरकार की फजीहत तो हुई ही, अब अन्न्नागिरी के कारण कइयों की किरकिरी होने लगी है, क्योंकि अपनी मांग या बात मनवाने के लिए ‘अन्नागिरी’ किसी ब्रम्ह शस्त्र से कम साबित नहीं हो रही है।
जिधर देखो, वहां अन्नागिरी की धूम है। आजादी के पहले ‘गांधीगिरी’ छाई रही। बाद में ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म में गांधीगिरी की झलक दिखी, उसके औंधे मुंह सोए लोगों को एकबारगी गांधी जी की गांधीगिरी याद आई। मैं तो यही कहूंगा कि देश में इंकलाब का रूप ले लिया है, अन्नागिरी ने। अन्ना के अनशन के दौरान मशाल उठाए लोगों की सोच ‘भ्रष्टाचारियों की मानसिकता से ‘भ्रष्टाचार के भूत’ उतारने की रही और वे सड़क पर उतर आए।
अब तो ‘अन्नागिरी’ भी सड़क पर आ गई है। मांग या अपने समर्थन में अन्नागिरी एक सशक्त माध्यम बनी हुई है। जितनी शक्ति व समर्थन अन्नागिरी को मिल रहा है, उतना मीडिया को अभी नसीब नहीं हो रहा है। अन्नागिरी के आगे हर बात व चीज धुंधली हो गई है। जब बात बिगड़ती दिखे और कोई आपकी मांगों को गौर नहीं कर रहा है तो बस अन्नागिरी की राह पर उतर आइए। देश में अन्नागिरी का ही धमाल है, क्योंकि यही सबसे ताकतवर टीम साबित हो रही है। वर्ल्ड कप जीता चुके भारतीय किकेट टीम के खिलाड़ी भी, अन्नागिरी के खिलाड़ियों के आगे कमतर ही नजर आ रहे हैं, क्योंकि मीडिया इन जैसों को हाथों-हाथ ले रहा है। फिलहाल देश में केवल अन्नागिरी का ही जलवा है, नेतागिरी व बाबागिरी दूर-दूर तक नहीं फटक रही हैं। चमचागिरी का तो नामो-निशान मिटती नजर आ रही है, क्योंकि अन्ना टीम यही कह रही है कि हम हैं तो दम है। मुझे लगता है कि आपके आसपास भी ‘अन्नागिरी की बाजीगरी’ जरूर दिख रही होगी।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

अस्पताल का मनमोहक सुख

एक बात सब जानते हैं कि जब हम बीमार होते हैं, तब इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं और डॉक्टर नब्ज समझकर इलाज करते हैं। अस्पताल जाने के बाद बीमारी छोटी हो या बड़ी, गरीबों के लिए कुछ ही दिन अस्पताल ठिकाना बन पाता है। गरीबों के लिएगरीबीअभिशाप अभी से नहीं है, जमाने से ऐसा ही क्रूर मजाक चल रहा है। हर हालात में गरीब ही बेकार का पुतला होता है, जिसकी ओर देखने की किसी को फुरसत तक नहीं होती, वहीं जब कोई मालदार, अस्पताल की दहलीज पर पहुंचता है, उसके बाद गरीबों को हेय की दृष्टि से देखने वाले भी, उनकी तिमारदारी में लग जाते हैं। मनगढ़ंत बीमारी का शुरूर सर चढ़कर बोलता है, क्योंकि पैसा भी बोलता है।
देश में बीमारी इस कदर बढ़ रही है कि इलाज करने वाले भी नहीं मिल रहे हैं। महंगाई की बीमारी से जनता मरे जा रही है, भ्रष्टाचार की बीमारी तो संक्रामक हो चली है। जहां देखें वहां, भ्रष्टाचार की बीमारी ने पैर पसार लिया है। इस बीमारी की चपेट में अभी बड़े-बड़े सफेदपोश लोग आने लगे हैं, उनके पास अथाह पैसा भी है, जिससे वे इस बीमारी पर थाह भी पा ले रहे हैं, लेकिन कुछ लोग बीमारी की नब्ज पकड़ने में असफल साबित हो रहे हैं और वे तिहाड़ की शोभा बढ़ाते हुए वहां इलाज का मर्ज ढूंढने में लगे हैं।
भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद सफेदपोशों का बस नहीं चलता, उसके बाद उन पर सरकार की चाबुक चलती है। चाबुक ऐसी कि वे संभल ही नहीं पाते और हालात ऐसे बन जाते हैं कि बड़े से बड़ा कद्दावर का कद भी छोटा हो जाता है।
मैं एक अरसे से देखते आ रहा हूं कि सफेदपोश लोग, जब भ्रष्टाचार की बीमारी की चपेट में आने के बाद इलाज कराने रूचि नहीं लेते, लेकिन जैसे ही जेल की राह पकड़ते हैं। वे इलाज के लिए तड़प पड़ते हैं। दर्द इतना होता कि वे कराह उठते हैं। वैसे भी जेल, किसी को भी रास नहीं आती, यही कारण है कि जेल जाते ही ‘अस्पताल’ याद आ जाता है और भ्रष्टाचार की बीमारी के बाद बरसों तक इलाज कराने के तैयार नहीं रहने वाला भी ‘अस्पताल’ पहुंचने को आतुर हो जाता है। अस्पताल में इलाज भी ऐसे जारी रहता है, जैसे वह ऐसी बीमारी से ग्रस्त है, जिसका इलाज संभव ही नहीं। जाहिर सी बात है कि अस्पताल के सुख और जेल की चारदीवारी, दोनों में अंतर है। इलाज के नाम पर कुछ भी खाया जा सकता है, जेल में मनचाहा स्वाद कहां नसीब होता है। जेल में महज कुछ फीट जमीं पर गुजारा होता है, जो व्यक्ति जीवन पर यायावर की तरह घूमने का आदी हो, उसका मन कैसे एक जगह पर लग सकता है ? इसी के चलते जेल जाते ही, ‘अस्पताल’, मंदिर की तरह याद आता है। जेल तो नरक ही लगती है, क्योंकि सारे जहां का सुख यहां नहीं होता।
इतना जरूर है कि जेल से अस्पताल पहुंचते ही, नरक का माहौल स्वर्ग में बदल जाता है। दो-चार दिनों की बीमारी के इलाज में महीने भर लग जाते हैं। गरीबों की नब्ज को महज हाथ देखकर समझ लिया जाता है, लेकिन सफेदपोशों की बीमारी को मशीन भी समझ नहीं पाती। कई दिनों तक जांच के बाद भी बीमारी का मर्ज पता नहीं चलता। लिहाजा, अस्पताल में सुख को कैश करने का पूरा मौका मिलता है, यह सब जेल में मुमकिन ही नहीं होता।
जब भी कोई सफेदपोश जेल पहुंचता है, उसके बाद आप तय मानिए, उसकी ‘अस्पताल’ जाने की चाहत जरूर सामने आती है। महीनों-महीनों बीमार नहीं पड़ने वाले सफेदपोश को, जैसे ही जेल की हवा खानी पड़ती है। एसी कमरे में दिन गुजारने वाले को जेल की गर्मी बर्दास्त नहीं होती, मगर ‘नोट की गरमी’ बर्दास्त करने के लिए हर पर दो पांव पर खड़े नजर आते हैं।
मेरा तो यही कहना है कि जब बीमारी को हाथ लगाने से डर नहीं लगता कि कहीं यह संक्रामक साबित न हो जाए और कभी भी चपेट में ले सकती है। इस बात के बिना गुमान किए ‘भ्रष्टाचार’ की गहराई में कूद पड़ते हैं। उन्हें जेल के सुख का भी मजा लेना चाहिए। वे अस्पताल के मनमोहक सुख के आगे नतमस्तक नजर आते हैं। मैंने कभी नहीं सुना कि किसी गरीब को जेल होने के बाद उसकी तबियत बिगड़ी हो और वह अस्पताल के सुख का इच्छा जताता हो। जेल की चारदीवारी में चाहे-अनचाहे उन्हें रहनी पड़ती है, अस्पताल की मौज गरीबों को कहां नसीब होती, क्योंकि उसके लिए खुद का जेब गर्म होना जरूरी होता है। इस मामले में सफेदपोश दसियों कदम आगे होते हैं, तभी उनका ‘जेल’ से लेकर ‘अस्पताल’ तक सिक्का चलता है। भला, मनमोहक सुख कौन पाना नहीं चाहता। ये अलग बात है कि अपना-अपना नसीब होता है।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री

पहले मैं अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर लेता हूं। जब हम स्कूल में पढ़ा करते थे, उस दौरान शिक्षक हमें यही कहते थे कि प्रधानमंत्री बनोगे तो क्या करोगे ? इस समय मन में बड़े-बड़े सपने होते थे। उस सपने को पाले बैठे, अपन आज बचपन से जवानी की दहलीज में पहुंच गए हैं। हम जैसे देश में जाने कितने, यह सपना देखते हैं, लेकिन खुली आंख से सपना कहां पूरा होता है ? ये अलग बात है कि कई बार ऐसा होता है, जब व्यक्ति सपना तक ही नहीं देखा रहता और प्रधानमंत्री बन जाता है। बिन मांगे मुराद मिल जाती है और जीवन की वैतरणी पार लग जाती है, क्योंकि ऐसी किस्मत का धनी होना, मामूली बात नहीं होती।
देश में प्रधानमंत्री का पद कितना महत्वपूर्ण होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यहां तो एक अनार-सौ बीमार वाली स्थिति हर पल बनी रहती है। कोई प्रधानमंत्री की कुर्सी को छोड़ा नहीं, उससे पहले कतार में दर्जनों नजर आते हैं। कइयों की हालत ऐसी है कि प्रधानमंत्री को ‘प्रधानमंत्री’ नहीं समझते, उंगली करने से बाज नहीं आते। जब मन करता है, दूसरे को प्रधानमंत्री बनाने का हिमाकत करने लगते हैं। यह नहीं सोचते कि अभी प्रधानमंत्री बनकर जो बैठा है, देश को भी बड़े आनंद के साथ चला रहा है, उसे कितना बुरा लगेगा। करोड़ों लोगों के बीच से निकलकर, ऐसे पद को सुशोभित करने का सौभाग्य हर किसी को थोड़ी न मिलता है। जिन्हें मिल गया है, उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी का भरपूर रसपान करने पूरी छूट दी जानी चाहिए, लेकिन टांग खींचने वाले बाज आए, तब ना। हर धतकरम करने लगे रहते हैं, पूरी छटपटाहट रहती है, कुर्सी से उतारने की, किन्तु कुर्सी पर अंगद के पाव की तरह जमे होने के बाद, कोई कहां हटता है ?
खैर, मूल बात पर आते हैं कि बचपन में मैंने जो सपना संजोए रखा था, वह आज भी ताजा है। चाहता तो हूं कि मैं प्रधानमंत्री बनूं, लेकिन इतनी हैसियत नहीं कि चुनाव लड़ सकूं। इतने खर्चीले चुनाव का बोझ सहना मेरे बस की बात नहीं है। सोच रहा हूं, पिछले दरवाजे का सहारा ले लूं, जहां से कई खासमखास पहुंचते हैं। बिना चुनाव लड़े, कुर्सी तक पहुंच जाउं, इसके लिए हर तरह के गणित बिठाने की जुगत में लगा हूं। देखता हूं, शतरंज के चौरस में अपनी गोटी भारी पड़ती है कि नहीं। मेरा मन प्रधानमंत्री बनने के लिए तड़प रहा है, लेकिन मेरा रास्ता ही साफ नहीं हो रहा है। रास्ते में कई रोड़े नजर आ रहे हैं। कई लोग मुझे हूटिंग तक करने लग गए हैं। इससे मेरा मनोबल टूटने वाला नहीं है, मैं पूरी तरह ठानकर बैठा हूं कि कुछ भी हो जाए, प्रधानमंत्री बनकर दिखाना ही है और स्कूल में पढ़ते समय जो ख्वाब, देश को अग्रसर करने का देखा था, उसे पूरा करना ही है।
प्रधानमंत्री बनने के लिए मेरा मन हिलोर मार रहा था, इसी बीच मेरी अंतरात्मा से आवाज आई कि यह पद काजल की कोठरी की तरह हो गया है। आजादी के समय, जो हालात थे, वह आज नहीं है। एक दौर था, जब पद को लात मारा जाता था, अब पद को शिरोधार्य किया जाता है, भले ही जनता के बद्दुआओं के जितने भी जूते पड़ जाए। आज मैं देख रहा हूं कि तोहफे में ‘प्रधानमंत्री पद’ मिलता है और उसके बाद भ्रष्टाचार, महंगाई की तोहमत, सिर पर उठानी पड़ती है।
इन बातों को सोच-सोचकर मेरा मन भर आया है कि मैं, प्रधानमंत्री बनने के सपने को खटकने तक नहीं दे रहा हूं। इतना तय है कि बड़ा बनना है तो बड़े सपने देखो। कुछ नहीं बन पाए तो कतार में कहीं न कहीं, कुछ हाथ आएगा ही। मन से प्रधानमंत्री बनने का भूत उतर गया है, लेकिन खुद को कतार में खड़े होने का अहसास पाता हूं। मेरे जैसे और भी कई हैं, जो पीएम वेटिंग की लिस्ट में हैं। इस फेहरिस्त में मैं दूर-दूर तक नहीं ठहरता। मेरा नंबर आने वाला नहीं है, इसलिए मैं कहता हूं कि ‘मुझे नहीं बनना प्रधानमंत्री’। ऐसी स्थिति में न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रावण के दर्द को समझिए

हर साल जाने कितनी जगहों में रावण का दहन किया जाता है और खुशियां मनाते हुए पटाखे फोड़े जाते हैं, मगर रावण के दर्द को समझने की कोई कोशिश नहीं करता। अभी कुछ दिनों पहले जब दशहरा मनाते हुए रावण को दंभी मानकर जलाया गया, उसके बाद रावण का दर्द पत्थर जैसे सीने को फाड़कर बाहर गया। रावण कहने लगा, उसकी एक गलती की सजा कब से भुगतनी पड़ रही है। गलती अब प्रथा बन गई है और पुतले जलाकर मजे लिए जा रहे हैं। सतयुग में की गई गलती से छुटकारा, कलयुग में भी नहीं मिल रहा है।
रावण ने अपना संस्मरण याद करते हुए कहा कि भगवान राम ने अपने बाण से उसका समूल नाश कर दिया था। सतयुग में जो हुआ, उसके बाद पूरी करनी पर, आज की तरह पर्दा पड़ जाना चाहिए था। जिस तरह देश में भ्रष्टाचार, सुरसा की तरह मुंह फैलाए बैठा है। महंगाई, जनता के लिए भस्मासुर साबित हो रही है। इन बातों पर कैसे सरकार पर्दा डाले जा रही है। ये अलग बात है कि लाख ओट लगाने के बाद भी तालाब में उपले की तरह बाहर कुछ न कुछ आ ही जा रहा है। दूसरी ओर रावण की एक करनी के बाद, कितनी मौत मरनी पड़ रही है। जगह-जगह वध होने के बाद रावण रूपी माया खत्म ही नहीं हो रही है, लेकिन देश को विपदाओं का दंश झेलने पर मजबूर करने वाली सरकार का वध क्यों नहीं हो रहा है। रावण का मर्म में समझ में आता है, लेकिन उसकी तरह जनता हामी भरे, तब ना।
रावण के पुतले को जलाने के बाद हमारी संतुष्टि देखने लायक रहती है, जैसे हमने पूरे ब्रम्हाण्ड में फतह हासिल कर ली हो। जिस तरह रावण ने अपने तप से हर कहीं वर्चस्व स्थापित कर लिया था। वे चाहते तो हवा चलती थी, वो चाहतेे तो समय चक्र चलता था। इतना जरूर है कि लोगों के शुरूर के आगे रावण भी इस कलयुग में नतमस्तक नजर आ रहा है। यही कारण है कि वह अपने दर्द को छिपाए फिर रहा है। भला, अनगिनत जगहों पर हर बरस जलाने के बाद किसे दर्द नहीं होगा, किन्तु वे परम ज्ञानी हैं, इसलिए अपने दर्द को सीने में लादे बैठे हैं। रावण को दर्द सालता जरूर है और टीस से कराह पैदा होता है, लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है ? मनमौजी लोगों के आगे उनकी कहां चलने वाली है। वे चाहें तो साल में नहीं, हर दिन रावण दहन कर दे, लेकिन केवल पुतले का। ऐसा हमारे राजनीतिक दल के नेता करते भी हैं, कुछ हुआ नहीं, ले आए किसी का पुतला बनाकर और दाग डाले। इस बात से कोई इत्तेफाक नहीं रखता कि जैसे हम रावण के पुतले जलाते हैं, वैसे ही हम उन लोगों का समूल नाश करने की सोंचे, जो भ्रष्टाचार की जड़ मजबूत किए जा रहे हैं। ऐसे लोगों की सफेदपोश शख्सियत के आगे हम नतमस्तक नजर आते हैं, जैसे रावण के पुतले हमारे सामने। यही सब बात है, जिस दर्द का अहसास, रावण को हर पल होता है।
हमारे देश की सरकार थोड़ी न है, जिसे दर्द का अहसास ही नहीं। गरीब चाहे जितनी भी गर्त में चले जाएं, महंगाई जितनी चरम पर पहुंच जाए। भ्रष्टाचार से देश में जितना भी छेद पड़ जाए, इन बातों से हमारी सरकार कहां कराहने वाली है। ये सब महसूस करने के लिए देश में भूखे-नंगे गरीबों की जमात, जो है। गरीबों की किस्मत, रावण से कम नहीं है, रावण को एक गलती का खामियाजा न जाने कब तक भुगतना पड़ेगा, वैसे ही सरकारी कर्णधारों के रसूख के आगे बेचारी जनता की लाचारगी, वैसी ही है। पुतले के रूप में खड़ा रावण खुद को जलते हुए देखता है और जुबान भी नहीं खोल पाता और उफ भी नहीं कर पाता। यही कुछ हाल, गिने जा सकने वालों के आगे करोड़ों लोगों का है।
यही कहानी अनवरत चल रही है। सरकार, गरीबों का दर्द नहीं समझती और हम रावण का दर्द नहीं समझते। बस, बिना सोचे-समझे उसे हर साल जलाए जा रहे हैं। कोशिश हमारी यही होनी चाहिए, पहले मन के रावण को मारें, फिर देश के रावणों का नाश कर खुशियां मनाएं। इसके लिए हमारा सबसे बड़ा हथियार है, वो है हमारी वोट की ताकत। हमें पुतले पर नहीं, जीते-जागते सफेदपोशों पर चोट करनी चाहिए। तब देखें, ‘रावण’ की तरह ‘रीयल लाइफ के रावणों’ को दर्द होता है कि नहीं ?

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भ्रष्टाचार की आप बीती

देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के बारे में मैं सोच ही रहा था कि अचानक भ्रष्टाचार प्रगट हुआ और मुझे अपनी आप-बीती सुनाने लगा। मुझे लगा, भ्रष्टाचार जो कह रहा है, वह अपनी जगह पर सही है। भ्रष्टाचार कह रहा था कि देश में काला पैसा बढ़ रहा है और कमीशनखोरी हावी हो रही है, भला इसमें मेरा क्या दोष है ? दोष तो उसे देना चाहिए, जो भ्रष्टाचार के नाम को बदनाम किए जा रहे हैं। केवल भ्रष्टाचार पर ही उंगली उठाई जाती है, एक भी दिन ऐसा नहीं होता कि कोई भ्रष्टाचारियों पर फिकरी कसे और देश के माली हालात के लिए जिम्मेदार बताए।
भ्रष्टाचार बड़े भावुक होकर कहने लगा कि बार-बार उसे ही अपमानित किया जाता है। जब कोई घोटाला होता है, मीडिया से लेकर देश की अवाम भूल जाती हैं कि इसमें भ्रष्टाचारियों की मुख्य भूमिका है, न कि भ्रष्टाचार की। भ्रष्टाचार, खुद को भ्रष्टाचारियों का महज सारथी बताता है। उसका कहना है कि भ्रष्टाचारी, उसे जो कहते हैं, वो वह करता है। भ्रष्टाचारियों के साथ चलने का ही दंश झेलना पड़ रहा है।
भ्रष्टाचार ने दर्द का इजहार करते हुए बताया कि वह चाहत तो है, किसी तरह भ्रष्टाचारियों से उसका साथ छूट जाए। इसके लिए कई बार माथा-पच्ची भी की। जब भ्रष्टाचारी अपनी करतूत से देश को आर्थिक संकट में डालते हैं, उसके बाद मेरी पहली मंशा रहती है कि घपले-घोटाले की पुख्ता जांच हो और भ्रष्टाचारियों को सजा हो, मगर तब मेरी सोच पर पानी फिर जाता है, जब जांच, दशकों तक चलती रहती है और बाद में नतीजा सिफर ही रहता है। कई बार तो जांच के बाद भी भ्रष्टाचारियों पर आंच नहीं आती है, ऐसी स्थिति बन जाती है, जैसे सांच को आंच क्या ? बस, भ्रष्टाचार ही बदनाम होता है और मुझे कोई न कोई तमगा भी मिल जाता है।
भ्रष्टाचार चाहता है कि जिस तरह वह जनता का कोपभाजन बनता है और तड़पता है तथा अपने हाल पर रोता है, वैसा हाल भ्रष्टाचारियों का भी हो। फिर अफसोस भी जाहिर करता है कि यहां ऐसा संभव नहीं है। उसने कहा कि आज तक किसी भ्रष्टाचारी पर कानून के लंबे हाथ पहुंच सका है। तिहाड़ भी पहुंच गए तो मौज को भी ‘कैश’ से ‘कैस’ करते हैं। बात-बात पर मुझे ही कटघरे में खड़ा किया जाता है, जिसे जायज नहीं कहा जा सकता। भ्रष्टाचार अपनी स्थिति पर आहें भरते हुए अपनी आप-बीती आगे बढ़ाते हुए कहा कि उसका हाल, ‘करे कोई और भरे कोई’ की तरह है। सब करनी भ्रष्टाचारी करते हैं और करोड़ों जनता की आंखों की किरकिरी, भ्रष्टाचार बनता है। सब खरी-खोटी भ्रष्टाचार को सुनाते हैं, दिन भर लोग उसे श्राप देते रहते हैं कि भ्रष्टाचार का नाश हो जाए। हालांकि, भ्रष्टाचार इस श्राप पर मजे लेता है और कहता है कि वह तो हर पल मिटने को तैयार है, किन्तु भ्रष्टाचारी इस देश से मिटे, तब ना। भ्रष्टाचारियों से उसका साथ तो चोली-दामन का है।
अंत में, भ्रष्टाचार ने अपने संदेश में कहा कि उस पर कीचड़ उछालने और घोटाले के लिए भ्रष्टाचार की खिलाफत कर, खुद का कलेजा जलाने से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि इसमें उसका कोई हाथ नहीं है, सब किया-धराया भ्रष्टाचारियों का है। जब तक देश में भ्रष्टाचारी पननते रहेंगे, मजाल है कि कोई भ्रष्टाचार की शख्सियत को खत्म कर दे। भ्रष्टाचारियों की करतूत जितना देश के टकसाल को खोखला करने में लगी रहेगी, उससे भ्रष्टाचार की चांदी बनी रहेगी। भ्रष्टाचार इतराता है और कहता है, मेरा इन सब से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। उल्टे, दिनों-दिन मेरी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही है। आज मेरा नाम हर घर तथा जुबान तक है। मेरी पहचान इस कदर कायम है कि इतिहास से मुझे मिटाया नहीं जा सकता।
भ्रष्टाचार हुंकार भरते हुए कहता है, नहीं लगता कि भ्रष्टाचारियों का कद मेरा इतना होगा, लेकिन देश की आर्थिक कद घटाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है। इस बात को देश के लोगों को समझना चाहिए और जो भी कहना है, वह भ्रष्टाचारियों को कहें, तभी कुछ होगा। केवल मन का भड़ास निकालने से काम चलने वाला नहीं है। फिर कुछ ही क्षण बाद, भ्रष्टचार मेरी नजरों के सामने से ओझल हो गया। केवल इन पलों की यादें ही शेष रह गईं।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

अन्ना जी, आप भी...

मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना’, यहां भी अन्ना, वहां भी अन्ना’, ‘अन्ना नहीं ये आंधी है, नए भारत का गांधी है’, ऐसे ही कुछ नारों से पिछले दिनों रामलीला मैदान गूंजायमान था। तेरह दिनों तक चले अनशन के बाद अन्ना, गांधी जी के अवतरण कहेे जा रहे हैं। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि दुनिया में दूसरा गांधी, कोई हो नहीं सकता। खैर, अन्ना के आंदोलन के बाद दुनिया में एक अलग लहर चली है, आजादी की दूसरी लड़ाई की।
हमारे अन्ना अब चुनाव लड़ने की नहीं, लड़वाने की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं कि ऐसे युवा जिनकी छवि बेदाग हो, वे निर्दलीय चुनाव लड़ें। वे चुनाव प्रचार भी करने जाएंगे। यह तर्क का विषय हो सकता है कि अन्ना टीम के एक सदस्य ने चुनाव से तौबा बात कही थी, फिर राजनीति की गंदगी को साफ करने के इरादे का रहस्य क्या है ? जिन्हें अन्ना से भ्रष्टाचारी नेताओं को डर लग रहा था, वो भी खुश होंगे कि चलो, अब चुनावी कुस्ती एक साथ तो होगी।
मैं इसके बाद यही सोच रहा हूं कि आखिर अन्ना को हो क्या गया है ? अन्ना जी तेरह दिनों तक जुटी अपार भीड़ और समर्थन को हर तरह से अपने पक्ष में मान रहे हैं। जब उनका आंदोलन चला, उस दौरान हमारे कई नेता सठिया जरूर गए थे, लेकिन चुनाव में शातिर दिमाग वाले नेताओं के आगे कोई टिक नहीं सकता। इससे पहले हमारे शरीर दुरूस्ती में अहम भूमिका निभाने वाले ‘बाबाजी’ ने भी चुनाव लड़ाने की सोची थी। वे अपनी योग क्रिया में हर तरह से सफल हुए, मगर चुनाव में वे भोगी बन चुकी जनता के आगे नतमस्तक हो गए। जिन-जिन को उन्होंने समर्थन दिया, वे चुनावी समर से बाहर हो गए। एक ने भी चुनावी नैया पार नहीं लगाई। इन बातों को जानने के बावजूद किस रणनीति के साथ अन्ना चुनाव लड़ाने वाले हैं, वे ही जानें।
अन्ना जी से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आपके साथ देश की करोड़ों जनता है। आप इसी तरह से समाज सेवा में लगे रहेंगे, वे आपके हम कदम बने रहेंगे। इतना जरूर है कि जब आप चुनावी दमखम दिखाएंगे, उसमें कितने आपके साथ देंगे, कह नहीं सकते ? मैं बाबाजी से पहले की स्थिति से वाकिफ हूं कि किस तरह ऐन वक्त पर हमारी जनता गुलाटी मार जाती है। हम सोचते रहते हैं कि ये हमारे साथ ही है, किन्तु चुनावी परिस्थिति ऐसी बनती है कि वे अपने पाले से चले गए होते हैं।
अन्ना जी आज की राजनीति को न जाने किस-किस तरह की संज्ञा दी जाती है, फिर भी इसकी सफाई में आप उतरने वाले हैं। आप ये तो जानते होंगे कि काजल की कोठरी में जाने से खुद के भी कपड़ें काले हो जाते हैं। हमारे बहुचर्चित बाबाजी ने जब चुनाव में भागीदारी की बात कही, उसके बाद हमारे चतुर व शातिर राजनीति के पैरोकारों ने उनका जिस तरह चौतरफा मान घटाया। उन्हें न जाने क्या-क्या कहा, कोई उन्हें ठग कहते फिर रहा है, कोई कह रहा है, चतुर सयाना। ये तो मैं जानता हूं कि जब कीचड़ में पत्थर मारा जाता है, उसके बाद कीचड़ की छींटे, खुद पर भी आती हैं। मैं ये भी जानता हूं कि आप इन सब कीचड़ के डर से अपनी बातों से डिगने वाले नहीं है। देश की राजनीति में निश्चित ही गंदगी भर आई है, उसकी सफाई होनी चाहिए, लेकिन आप जिन समाजसेवी कार्यों से लोगों के दिल में समाए हैं, उससे यह तय नहीं हो जाता कि प्रत्येक जनता की आस्था आप पर है।
मैं हर चुनाव के समय देखता हूं कि कैसे, हमारी जनता की आस्था बेसिर-पैर की हो जाती है। जहां पैसों की खनखनाहट सुनाई देती है, उसी की हो लेती हैं। जिन जनता की खातिर, आप तेरह दिनों तक कुछ भी खाए-पीए नहीं, वही चुनाव में आपके समर्थक का खूब खाएंगे-पीएंगे, मगर गाएंगे, कुछ नहीं। ऐसा पहले नहीं होता तो मैं आपके निर्णय को सार्थक मानता, पर जनता के रग-रग से वाकिफ होने के बाद मुझे आप पर तरस आ रहा है कि आप क्यों राजनीति के दलदल में समा रहे हैं। जिन्हें दूसरों पर कीचड़ उछालने की आदत होती है, वही यहां महारत हासिल करता है। बिना तीन-पांच किए चुनावी वैतरणी पार नहीं लगती, कइयों को सबक सीखानी पड़ती है। हमारे गांधी जी जिससे नफरत करते थे, उसे भी छककर पिलानी पड़ती है।
आप तो नए भारत के गांधी हैं, आपको देश की राजनीति की बेवजह फिक्र नहीं करनी चाहिए। बरसों से वंश दर वंश राजनीति चल रही है। इसमें आपको कूदने की जरूरत नहीं है। आप जनता के हमदर्द बने रहें, उन्हें राष्ट्र हित का बोध कराते रहें। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते रहें, मगर राजनीति में किसी को लड़ाने की खूबी, मुझे आप में नजर नहीं आती है। इसीलिए मैं कही कहूंगा कि अन्ना जी, आप भी...।