बुधवार, 31 अगस्त 2011

उपाधि मिलने की वाहवाही

उपाधिदेने की परिपाटी बरसों से है। बदलते समय के साथ यह परिपाटी अब पूरे रंग में है। पहले आप कुछ नहीं होते हैं। उपाधि मिलते ही आप रातों-रात उपलब्धि की सभी उंचाई पार लगा लेते हैं। हर तरफ बस वाहवाही रहती है। जब हर कहीं सम्मान मिले और नाम के आगे चार चांद लग जाए। ऐसी स्थिति में कौन नहीं चाहेगा, किसी उपाधि से सुशोभित होना। उपाधि पाने का कीड़ा जब काटता है, उसके बाद उपाधि छिनने की करामात भी करनी पड़ती है। माथे पर उपाधि की मुहर लगते ही एक अलग पहचान बनती है। आने वाली पीढ़ी भी उपाधि के सहारे ही जानती हैं कि वे कितने गहरे पानी में हैं और इससे उबरने, ऐसी शख्सियत बनने जोड़-तोड़ के साथ हाथ-पैर भी मारना पड़ता है।
खुद को उपाधि से सुशोभित करने की ललक न जाने कब से मन में समाया हुआ है। जब किसी को उपाधि लेते देखता व सुनता हूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है, शरीर में जलन, इस कदर बढ़ जाती है कि उस उपाधि को छिनने का मन करता है, क्योंकि यही खेल तो चल रहा है। कारण भी है, मुझमें क्या कमी है, जो उपाधि नहीं मिल सकती। इतना तो जानता हूं कि उपाधि मिलने के बाद मेरा कद जरूर बढ़ जाएगा।
वैसे मैं इतना जानता हूं कि किसी भी तरह से मेरा कद उंचा नहीं है। न शरीर से और न धन से, बस थोड़ी बहुत लिख-पढ़कर कद उंचा करने की कोशिशें जारी हैं। मकसद, एक ही है, ‘उपाधि’ मिल जाए। उपाधि भी ऐसी हो, जिसके बाद अपना अनजाना चेहरा किसी पहचान का मोहताज न हो। जिस जगह से गुजरो, वहां चार लोग जान-पहचान के मिल जाए। वहां खुद को मिली महान उपाधि की वाहवाही किए बगैर कोई न रह सके। तब देखो, कैसे सीना चौड़ा हो जाएगा।
ये तो मैं देखते रहता हूं कि कैसे उपाधि रेवड़ी की तरह बंट रही है। कुछ दिनों पहले भी ऐसी ही खबरें आईं, इसके बाद मेरा मन एक बार फिर चहक उठा। बरसों से मन में दबी उपाधि पाने की चाहत, फिर जाग गई। अब चिंता सताने लगी कि इस बेचैन मन को कैसे मनाउं ? मेरा मन रह-रहकर उपाधि के सपने देखते रहता है। आखिर वो पल कब आएगा, जब मेरा मन शांत होगा और मुझ जैसे अभागे को कोई उपाधि मिलेगी ?
मैं सोचता हूं कि उपाधि पाने की कतार में न जाने कब से लगा हूं, मेरा नंबर क्यों नहीं आता। जरूर कुछ न कुछ गड़बड़झाला है, नहीं तो कैसे मैं इस उपलब्धि से महरूम रहता ? ये तो निश्चित ही किसी की साजिश होगी, क्योंकि बिना किसी के टांग खींचे, ऐसा संभव नहीं है। नेता तो बात-बात में साजिश की दुहाई देते हैं, मैं किस बात की दुहाई दूं। मुझे तो कारण ही समझ नहीं आ रहा है। बस, मैं खुद को हर कोण से उपाधि पाने के काबिल मानता हूं। ये अलग बात है कि देने वाले मुझे काबिल नहीं मानते।
मेरे मन में इस बात पर कोफ्त होती है कि चलो, मैं तो काबिल नहीं हूं, मगर जिन्हें मिलता है, वे कितने काबिल होते हैं। बस, उपाधि, पद के पीछे भागती है और देने वाले उपलब्धि के पीछे। अपने पास कोई उपलब्धि नहीं है। जो है, उसे कोई मानने को तैयार नहीं है। अब इसमें मेरा क्या दोष है। मैं तो मानता हूं, मुझमें हर खूबी है और उपाधि का हकदार भी हूं।
मुझे हर तरह से वाहवाही लेनी है। मुझमें बुखार चढ़ा है कि कैसे भी करके एक उपाधि हासिल करनी ही है। जैसे अन्य लोग उपाधि पा लेते हैं, मुझे भी किसी भी तरह से उपाधि लेनी ही है। हालांकि, मुझे शार्टकट का रास्ता नहीं आता। यदि कोई रास्ता हो और उपाधि दिलाने कोई मदद कर सके तो उनका आभारी रहूंगा। इसके बाद फिर क्या है, मैं वाहवाही के सागर में डूबकी लगाता रहूंगा।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

लगा भी दो अब शतक

हमारा देश अनंत विविधताओं से ओत-प्रोत है। 33 करोड़ देवी-देवताओं से हममें से हर कोई कुछ कुछ मांगते रहता है। भगवान भी देर से ही सही, अपनी आराधना करने वालों की सुध लेते ही हैं। तभी तो मंदिरोें में मत्था टेकने वालों में भगदड़ मचती रहती है। भगवान हममें से कइयों को छप्पर फाड़कर देता है, ये अलग बात है कि कुछ को छप्पर भी नसीब नहीं होता। कोई दो वक्त की रोटी को ईश्वर की असीम देन कहता है तो एक दूसरा, उसकी अहमियत को नहीं समझता, फिर भी भगवान उस पर मेहरबान हुए रहते हैं।
हम भगवान से मांगते रहते हैं, वैसे ही क्रिकेट के भगवान से भी हम जैसे अनगिनत रहनुमाई एक ‘शतक’ बीते कुछ महीनों से मांग रहे हैं, मगर उनका बल्ला ‘शतक का आशीर्वाद’ नहीं दे रहा है। हमें बेसब्री से इंतजार है कि क्रिकेट के भगवान ‘शतकों का शहंशाह’ बनें और शतकों का शतक लगाए। न जाने कब से अंखियां बिछाए बैठे हैं कि वे कीर्तिमान बनाकर हम जैसों को धन्य करें। क्रिकेट की खुमारी न जाने कहां-कहां छाई है, इसीलिए खाने-पीने की फुर्सत भी नहीं रहती। क्रिकेट को जिंदगी समझने वालों के दिमाग में भी उछल-कूद मची है, फिर भी क्रिकेट के भगवान अपने में ही मग्न हैं। करोड़ों क्रिकेटप्रेमी अपने मसीहा से मांग-मांग कर थक जा रहे हैं, हे क्रिकेट के देवता एक शतक तो लगा दो। आपने हमारी कई मुरादें पूरी की हैं, इस सीढ़ी को चढ़ने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
हर समय टीवी से चिपके रहते हैं, मन में केवल एक ही बात रहती है कि क्रिकेट के भगवान, कहां, किस समय, किस गेंद पर अपन शतक लगा दें। कहीं उस पल को देखने हम चूक न जाएं, यही कारण है कि एक मैच देखने में हाथ से जाने देना नहीं चाहते, भले ही हमारे खिलाड़ी कागजी शेर निकल जाए। हम पूरी सीरीज गंवा दें, बस मन में एक ही बात समाई बैठी है कि क्रिकेट के भगवान ने हमें इतने शतक दिए हैं, अब और एक शतक दे दें। इससे हमारी सबसे बड़ी मुराद पूरी हो जाएगी।
क्रिकेट के भगवान पर वैसे ही हर किसी की निगाह टिकी है, कोई उन्हें ‘भारत रत्न’ देने का हिमायती बन बैठा है तो किसी को उनके एक ‘ अनमोल शतक’ का इंतजार है। कइयों को लग रहा है कि इसके बाद उनका ‘भारत रत्न’ बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह स्वाभाविक भी है, देश को गौरव के सोपान में सातवें आसमान पर पहुंचाने वही एक ही तो हैं, बाकी तो बस ऐसे ही हैं। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है, इस लिहाज से मेजर ध्यानचंद को ‘भारत रत्न’ दिए जाने की गुजारिश भी की जा रही है। देशी की बात हम करते हैं, किन्तु हर कहीं हममें पाश्चात्य हावी है। क्रिकेट में जब ऐसा हो रहा है तो हमें मुंह नहीं खोलना चाहिए। जैसे हमने पहले भी अपनी जुबान बंद कर रखी है, वैसे ही आगे भी बने रहना चाहिए। इसके एवज में हमें कुछ बलिदान करना पड़े, यह कोई मायने नहीं रखता। बस, मायने एक ही है, क्रिकेट के भगवान को ‘भारत रत्न’ मिले।
कई कहते हैं कि सचिन देश के लिए नहीं खेलते, पैसे के लिए खेलते हैं, मगर मैं नहीं मानता, क्योंकि अपने लिए नहीं खेलते तो क्या इतने रिकार्ड बना पाते और हमारे कलयुगी भगवान बन पाते। देखिए, पद तथा पैसा का चोली-दामन का साथ रहता है, इसमें हमें एतराज नहीं करना चाहिए। एक तो हम उनसे पिछले बीस बरसों से मांगते चले आ रहे हैं और वे दोनों हाथों से बल्ला थामे लुटाए जा रहे हैं, शतकों पर शतक। फिर भी हमारी भूख खत्म ही नहीं हो रही है। यह निश्चित ही गलत बात है, जब हमें कोई देने पर आ जाए तो उसके बाद उनसे इतनी अधिक अपेक्षा पाल के नहीं रखनी चाहिए। अब देखिए न, अपेक्षा रखते-रखते शतक का पंथ निहार रहे हैं, किन्तु वे हैं कि शतक का रास्ता तैयार कर ही नहीं रहे हैं। ऐसा ही रहा तो किसी दिन आंखें ही न पथरा जाए।
काफी अरसे से मन कचोट रहा है कि हम भगवान से मांगते हैं, उसकी पूरी होने की उम्मीद रखते हैं और वह समय आने पर पूरी भी होती है। ऐसे में हमें मन को मारना नहीं चाहिए, आज नहीं तो कल, क्रिकेट के भगवान हमें ‘शतकों का प्रसाद’ जरूर देंगे। कहा भी गया है कि इंतजार का फल मीठा होता है। अब देखते हैं, हमारे ये भगवान हमारी सुनते हैं कि नहीं। काफी दिनों से बस निराश ही कर रहे हैं। सुन भी लो, क्रिकेट के भगवान और अब लगा भी दो, शतकों का शतक।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

देश को समर्पित कर दें ‘भ्रष्टाचार’

भ्रष्टाचार का जिन्न एक बार फिर बाहर गया है और इस बार वह सब पर भारी नजर रहा है। सत्ता के रसूख का दंभ भरने वाली सरकार भी डरी-सहमी हैं। आधुनिक भारत केगांधीके नए अवतरण के बादभ्रष्टाचार का भूतको देश से भगाने के लिएअनशन यज्ञका सहारा लिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह नए भारत कीअगस्त क्रांतिहै। हालात ऐसे बन गए हैं, जो भी भ्रष्टाचार की खिलाफत में मुंह मोड़ेगा, वह क्रांति की चपेट में जाएगा और देश में इस क्रांति से हजारों-हजार बावले नजर रहे हैं, ‘हजारेके साथ। भले ही कई बरसों से महंगाईडायनबनी बैठी है, लेकिन भ्रष्टाचार भी कुछ कम गुल नहीं खिला रहा है, वह भीभूतबन गया है और हर किसी के सिर पर सवार हो गया है।
भ्रष्टाचार का भूत ने देश की जनता के दिलो-दिमाग को झकझोरा ही है, साथ ही सरकार की भी चूलें हिला कर रख दी हैं। भ्रष्टाचार ही है, जिसने कईयों के मुंह बंद करा दिए हैं। भ्रष्टाचार के भूत पर लगाम लगाने सरकार बेबस हो गई है। मैं यही कहूंगा, अभी स्थिति ऐसी हो गई कि भ्रष्टाचार को देश को समर्पित कर देना चाहिए, क्योंकि अवाम ने उसे अपनाया हुआ है, बरसों-बरस से। आने वाले दिनों में भी भ्रष्टाचार, जलवा बिखरेता रहेगा, इसमें किसी का क्या जाता है। जैसा चल रहा है, चलने दो ? सरकार भी यही चाहती है। सत्ता के मद में चूर सरकार के संग-संग चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ करोड़ों ने हाथों ने ‘अनशन यज्ञ’ में आहुति दे दी है। हजारों-हजार हाथ जैसा चाह रहे हैं, वैसा नहीं हो रहा है, उल्टे भ्रष्टाचार का दिनों-दिन नाम रौशन होता जा रहा है। भ्रष्टाचार का मौज देखिए, विदेशों में भी अपनी शानो-शौकत दिखा रहा है। उसे काले-धन का ‘तमगा’ मिल गया है। जितना चाहे ऐड़ियां रगड़ लो, फिर भी भ्रष्टाचार के सामने बौने ही रहोगे।
आज हर जुबान पर भ्रष्टाचार ही छाया हुआ है। हो भी क्यों न, इतनी हाय-तौबा कब मची है ? भ्रष्टाचार, स्वाभाविक तौर पर इतराएगा ही कि अकेले, उसने देश की जनता को भी जगा दिया और सरकार को भी डरा गया। तभी तो देश से भ्रष्टाचार का भूत भगाने के लिए हर घर से ‘नए भारत का गांधी’ निकल रहा है। ऐसा लग रहा है, जैसे भ्रष्टाचार अब देश से मिटकर रहेगा, मगर हमने उसे इतना अपना लिया है तो इतनी जल्दी भला कैसे साथ छूट सकता है ?
मैं यही कहूंगा कि आजाद भारत के बाद से ही हम भ्रष्टाचार के साथ जी रहे हैं। ये अलग बात है कि नई बोतल से पुराना जिन्न बाहर आ गया है। भ्रष्टाचार रूपी जिन्न, देश में पहले भी दिखाई देता रहा है, परंतु आज उसका रूप जनता की नजर में विकराल ले लिया है। जनता कह रही है कि अब उसकी त्रासदी सहन नहीं होती। जितना धत-करम करना था, कर लिए। अब तो हमारा पीछा छोड़ो। भ्रष्टाचार, हमारी रगों में घुस गया है, उसे बाहर निकालने के लिए निश्चित ही कोई वैक्सीन ही काम आएगी।
भ्रष्टाचार देश से चला भी गया तो हमारा इतना फर्ज तो बनता है कि चौक-चौराहों में उसकी प्रतिमा स्थापित हो जाए। गलियों का नामकरण ‘भ्रष्टाचार’ के नाम पर हो जाए। तब कहीं जाकर हमारी आने वाली पीढ़ी, भ्रष्टाचार को समझ पाएगी। इतिहास में दर्जनों वाकिये दर्ज होते हैं, लेकिन कितने ऐसे होते हैं, जो गुलिस्तां में शामिल होते हैं ? हालांकि, भ्रष्टाचार ने इतना नाम कमा लिया है और देश के हर जेहन में इस कदर समा गया है, ऐसे हालात में भ्रष्टाचार का इतना हक तो बनता है कि उसे इतनी बेदर्दी से बिदा न किया जाए।
वैसे भी बरसों का साथ, एकबारगी नहीं छोड़ना चाहिए, ऐसा हम कहते-सुनते आ रहे हैं। कई दशकों से भ्रष्टाचार भी हमारी जिंदगी का हिस्सा रहा है, इसे बेरूखी से रूखसत नहीं करना चाहिए। भ्रष्टाचार ने अपने अधिकारों के लिए सोई जनता को जगाया है, इसके बाद उसे इतना अभयदान मिलना चाहिए और उसकी छह दशक की सेवा के लिए हमें देश को उसे समर्पित कर देना चाहिए। ये तो मैंने सूझा दिया, अब अंतिम निर्णय तो जनता-जनार्दन, अन्ना टीम और सरकार को ही लेना है। देखते हैं, आगे होता है, क्या ?

बुधवार, 3 अगस्त 2011

अनजाने चेहरों की दोस्ती

यह बात अधिकतर कही जाती है कि एक सच्चा दोस्त, सैकड़ों-हजारों राह चलते दोस्तों के बराबर होता है। यह उक्ति, जाने कितने बरसों से हम सब के दिलो-दिमाग में छाई हुई है। दोस्ती की मिसाल के कई किस्से वैसे प्रचलित हैं, चाहे वह फिल्मशोलेके जय-वीरू हों या फिर धरम-वीर। साथ ही भगवान कृष्ण-सुदामा की दोस्ती की प्रगाढ़ता जग जाहिर है। ऐसी दोस्ती की कहानियां धर्म ग्रंथों में कई मिल जाएंगी। यह भी कहा जाता है कि कलयुग में जितना हो जाए, बहुत कम है। कुछ भी हो जाए तो बसकलयुगीउदाहरण दिया जाता है। कलयुग में बहुत कुछ हुआ है, जो कभी सुनने में नहीं आया है। रिश्तों को कलंकित करना, जैसे कलयुग के हिस्से में ही है, कभी कोई कलयुगी बेटा हो जाता है तो कोई कलयुगी बाप बन जाता है। यह पदवी उन्हें ऐसे ही नहीं मिलता, इसके एवज में वे घृणित कार्य को शिरोधार्य करते हैं। कलयुग की पटकथा पर कई फिल्में बनाई गई हैं, अब तोकलयुगी तकनीकी दोस्तीपर भी कोई फिल्म बनाया जाना चाहिए। कुछ नहीं तो एकाध पुस्तक लिखी जानी चाहिए, जिसका विमोचन भी फेसबुकिया दोस्ती के पैरोकार करे तो ज्यादा बेहतर रहेगा।
तकनीकी प्रणाली में कलयुग की एक नई दोस्ती की कहानी गढ़ी जा रही है, वो है, अनजाने चेहरों से दोस्ती। एक दशक पहले एक फिल्म आई थी, ‘सिर्फ तुम’। इस फिल्म में जिस तरह बिना चेहरा देखे ‘प्यार’ हो जाता है और शादी की चाहत जाग जाती है, कुछ वैसा ही हाल ‘अनूठी दोस्ती की कहानी’ की है। दरअसल, आज दोस्तों की संख्या बढ़ाने की अजीब जद्दोजहद चल रही है, जिसमें कोई पीछे नहीं रहना चाहता, भले ही वे उस दोस्त के चेहरे से वाकिफ न हों। जो चेहरे दिख जाए, वही दोस्ती की फेहरिस्त में शामिल हो जाता है। ये अलग बात है, वह चेहरे पर चेहरा लगाया हो। इससे बात कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह गरीब है कि अमीर। ऐसा लगता है कि जैसे ‘चेहरा पहचान’ स्पर्धा की धूम मची है। जिन नाम को आपने सुना तक नहीं है, उनका यहां चेहरा का आभामंडल सहज देखा जा सकता है।
दोस्ती का कीड़ा ने भी मुझे भी काटा है, लिहाजा मैं भी ‘फेसबुकिया बीमारी’ की चपेट में हूं और देश भर में दोस्त बनाने में जुटा हूं। मैं कईयों को नहीं जानता, कभी नाम तक नहीं सुना। मगर धन्य है, हमारी फेसबुकिया पद्धति। जिसके आने के बाद सब आसान हो गया है, मिनटों-मिनटों में दोस्त टपक आते हैं, बटन दबाए नहीं, सामने नजर आ जाते हैं। चेहरा दिखते ही बस यही आवाज सुनाई देती है, मुझे भी अपनी ‘दोस्ती की किताब’ में शामिल कर लो। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम एक हैं, दोस्ती की कहानी भी कुछ वैसी है, क्योंकि जिस तरह देश में कहीं भी रहने व जाने का अधिकार है, दोस्त बनाने के लिए भी कोई रोक-टोक नहीं है। हम सब जानते हैं कि आसपास में कितने दोस्त बना पाते हैं, लेकिन ‘फेसबुकिया’ तकनीक ने तो दोस्तों की भरभार कर दी है। मन में यह बात सहसा आ जाती है कि दोस्ती का समुद्र सामने खड़ा है, जहां से जितना दोस्त चाहो, ले सकते हो। जैसे हम समुद्र के पानी को जितना भी लें, खत्म नहीं होता, वैसा ही दोस्त बनाने की कतार कहीं कटती नहीं। कोई न कोई कतार में दिखाई देता ही रहता है। दोस्तों की फेहरिस्त इतनी अधिक रहती है कि चेहरा तो दूर, नाम तक याद नहीं रहता, हैं न लाजवाब दोस्ती। दोस्ती की ऐसी मिसालें देखने को नहीं मिलेंगी, आपको ही पता नहीं कि आपके दोस्त कहां के हैं और करते क्या हैं ?
इस दोस्ती की कहानी यहीं नहीं रूकती, जैसे हर कहीं दोस्तों में गु्रपबाजी होती है, वैसे हालात यहां भी हैं। गुटबाजी किए व उसके हिस्से में आए बिना हमें लगता है, जैसे कुछ हासिल ही नहीं हुआ। पहले हमें विदेशी कंपनी ने कई तराजू में तौला और बांटा, अब फेसबुकिया बीमारी की बदौलत हम ‘ग्रुप की लड़ाई’ में शामिल हो रहे हैं। जहां देखो हर किसी का अपना ग्रुप है। अब समझ में नहीं आता कि किसके ग्रुप में रहें। कई तो ग्रुप बिना ही रहना चाहते हैं, लेकिन वे मानें, तब ना। जो अनजाने चेहरों से दोस्ती में माहिर हैं। चिकने चेहरे देखकर तो लार लपकाने वालों की कमी नहीं है और कई अपना शगल ही बना लिए हैं, चेहरे पर चेहरा लगाना। अब इसमें कोई क्या कर सकता है, जो अपना चेहरा ही दुनिया को दिखाना नहीं चाहता।
अब ऐसे में कौन बताए कि सच्चा कौन है और झूठा कौन ?, क्योंकि दोस्ती का पैमाना तो सच्चाई व ईमानदारी है, मगर ये तो खुले बाजार में मिलती नहीं, जो ‘फेसबुकिया बीमारी’ लगने के बाद आसानी से मिल जाती है। आज तो इस बीमारी की खुमारी छाई है, अनजाने चेहरों की दोस्ती की ललक हर कहीं नजर आ रही है। दम मार-मार कर बस यही कोशिशें जारी हैं कि कैसे भी हो, खुद को अनजाने चेहरों तक पहुंचाना ही है, भले ही वे याद रखें या न रखें।
मैं भी इस फेहरिस्त में शामिल हूं, क्योंकि अपना चेहरा तो कोई पहचानता नहीं, कोई देख ले तो फिर सिर फिरा ले। इसलिए यह शार्टकट राह मैंने भी चुन ली। ये तो सभी जानते हैं कि शार्टकट से कोई सफल नहीं होता। लिहाजा देखते हैं, ये दोस्ती कब तक चलेगी, हालांकि मैं तो यही कहूंगा, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...