शुक्रवार, 6 मई 2011

मुफ्तखोरी की बीमारी

बीमारी की बात करते हैं तो हर व्यक्ति, कोई न कोई बीमारी से ग्रस्त नजर जरूर आता है। बीमारी की जकड़ से यह मिट्टी का शरीर भी दूर नहीं है। सोचने वाली बात यह है कि बीमारियों की तादाद, दिनों-दिन लोगों की जनसंख्या की तरह बढ़ती जा रही है। जिस तरह रोजाना देश की आबादी बढ़ती जा रही है और विकास के मामले में हम विश्व शक्ति बनें न बनें, मगर इतना जरूर है कि यही हाल रहा तो जनसंख्या की महाशक्ति अवश्य कहलाएंगे। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही बीमारियां भी हमारे शरीर के जरूरी हिस्से होती जा रही हैं। जैसे अलग-अलग तरह से लोगों के नाम होते हैं, वैसे ही आज शरीर में नई-नई तरह की बीमारियां पसरती जा रही हैं।
जब हम बढ़ती बीमारियों की बात कर रहे हैं तो अभी देश में पनप रही एक नई बीमारी की चर्चा होना स्वाभाविक लगता है और वह है, मुफ्तखोरी की बीमारी। जिसे देखो, उसमें इस बीमारी की चाहत नजर आती है। एक बात है, कई तरह की बीमारियों से शरीर को नुकसान पहुंचता है, मगर मुफ्तखोरी की बीमारी से शरीर खूब फलता-फूलता है। मेहनत की कमाई के बाद पेट में गए भोजन को पचाने के लिए हाथ-पैर मारना पड़ता है, लेकिन मुफ्तखोरी की कमाई को पचाया नहीं जाता है, बल्कि उसे हजम कर लिया जाता है। मुफ्तखोरी की कमाई से पेट इतना भर जाता है, जैसे लगता है कि इसके आगे, दुनिया भर की संपत्ति कम पड़ जाएगी।
देश में मुफ्तखोरी पूरे चरम पर है। जिसे जब मौका मिलता है, हर कोई अपना उल्लू सीधा करने से पीछे नहीं हटता। जब मुफ्तखोरी की सुगबुगाहट शुरू होती है तो हर कोई अपना हाथ आगे रखना चाहता है। मुफ्तखोरी हमारे खून में समा गई हैं, तभी तो भ्रष्टाचार, शिष्टाचार बन गया है। घर बैठे कोई चीज मुफ्त मंे मिले तो भला उसे कौन हाथ से जाने देगा ? ऐसा ही चल रहा है, सभी जगह। जनता वोट के नाम पर नेताओं के मुफ्तखोरी की शिकार होती हैं, फिर नेता पूरे पांच साल, मुफ्त में जनता को शिगूफा थमाती रहती है। जहां-तहां देखो, केवल मुफ्तखोरी की चिंता है। सरकार तो अपने फायदे के लिए मुफ्तखोरी को गिफ्ट में दे रही है और जनता भी ऐश को पूरी तरह कैश कर रही है। क्या कहें, आजकल एक नई परिपाटी चल पड़ी है, चिल्हर से मुफ्तखोरी की। ऐसा लगता है, जैसे बाजार में एक, दो व पांच रूपये की कोई अहमियत ही नहीं है। यहां भी केवल मुफ्तखोरी का तमगा गड़ा नजर आता है। जब, सब जगह मुफ्तखोरी का जलवा कायम है तो जाहिर सी बात है, उसका असर मुझ पर भी थोड़ी-बहुत तो होगी ही। लिहाजा मैं भी कुछ लिखने के पहले सोचने लगता हूं कि कहीं से तो कोई मुफ्त में विचार दे जाए, जिससे मैं एक सफल लिख्खास बनने कामयाब हो सकूं।

सोमवार, 2 मई 2011

पदपूजा का आभामंडल

पदपूजा का आभामंडल हर किसी को भाता है। जिसे देखो, वह पद के पीछे, अपना पग हमेशा आगे रखना चाहता है। मैं तो यह मानता हूं कि जिनके पास कोई बड़ा पद नहीं है, समझो वह कुछ भी नहीं है। उसकी औकात उतनी है, जितनी सरकार की उंची कुर्सी में बैठे सत्तामद के मन में, जनता की है। पदपूजा की कहानी देखा जाए तो काफी पुरानी है। ऐसा लगता है, जैसे पद पूजा की परिपाटी कभी खत्म नहीं होने वाली है। पद का गुरूर भी बड़ा अजीब है, किसी को कोई बड़ा पद मिला नहीं कि वह सातवें आसमान में हवाईयां भरने लगता है। वह सोचता है, जैसे दुनिया उसके आगे ठहर गई है। वह जो चाहेगा, कर सकता है। पदपूजा की महिमा का परिणाम होता है कि कल तक लोगों के आगे, जो घिसट-घिसटकर चलता था, वही आज कईयों का माई-बाप बना नजर आता है।
पदपूजा का आभा मंडल मुझे भी भाता है। मैं भी चाहता हूं कि मुझे कोई बड़ा पद मिले तो अपनी धौंस जमाउं। मैं अक्सर देखता हूं कि पद, कैसे रेवड़ियां की तरह बंटता है, कैसे कामचोर उंची कुर्सी में बैठकर जनता की गाढ़ी कमाई को चट करता है। उन जैसों को पद के मद में पैसा हजम करने का शुरूर, हर पल सवार रहता है। उन्हें बदहजमी का भी डर नहीं होता, जब कभी ऐसा लगता है तो सफेदपोश बनकर कमाए गए पैसे को काला चादर ओढ़कर लॉकरों में सुरक्षित रख दिया जाता है। मैं इतना जरूर जानता हूं कि पद मिलेगा तो ही, खुद की पूजा हो सकती है और पद से ही धन की बरसा होती है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बिना पद के किसी को एक झोपड़ी बनाने, पूरी जिंदगी इंतजार करनी पड़ती है और एक वो होता है, जिसे पद मिलते ही एशो-आराम का मकान बैठे-ठाले नसीब हो जाता है। उन्हें देने वालों की कमी नहीं होती। पद नहीं होने के पहले भाग्य भी रूठा रहता है, मगर जैसे ही कोई पद मिलता है, उसके बाद तो विपन्नता की लहरें जिंदगी से खत्म हो जाती हैं।
किसी को पद मिलने के बाद जिस तरह पूजा होते देखता हूं तो, मुझे लगता है कि व्यक्ति कुछ नहीं होता, केवल पद होता है। पद मिलते ही साथ में चलने वाले सैकड़ों बिना बुलाए मिल जाते हैं। एक बात है, जब तक पद होता है, तब तक व्यक्ति की पूजा होती है। उसे कोई भी चीज की कमी नहीं होती, सभी चीजें बिना मांगे मिल जाती हैं। पदपूजा में लीन व्यक्ति, पदासीन व्यक्ति के मन को भांपने में ऐड़ी-चोटी, एक करता है। जिन चीजों की पदवी से लदा व्यक्ति लालसा नहीं रखता, वह भी घर पहुंच जाता है, उसे खुद पता नहीं रहता। यही कारण है कि आज-कल मैं हर पल सोचते रहता हूं कि दिन भर कलम खिसाई के बाद कुछ नहीं मिलता, उल्टा दिन भर सिर खपाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पद पूजा का आभा मंडल मुझे खींच रहा है और मैं ओहदेदार पद पाने बेताब हूं, जिसे धन की बरसा भी हो और पूजा भी हो। कई बरसों से मन में केवल एक ही चाहत थी कि एक छोटा सा कलमकार बन जाउं और रोजी-रोटी भी चलती रहे, लेकिन जिस तरह पदपूजा होते देखता हूं, उसके बाद से मन, केवल पद के पीछे भाग रहा है। पद पूजा की किस्में भी आभामंडल के साथ बदल जाती हैं। सोच रहा हूं, मैं कौन सी पद पूजा का चोला ओढ़ूं, जिससे दाम भी मिल जाए और दमड़ी भी न जाए ?